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बताऊँ मैं कौन हूँ?

वेदांत में सत्य का अन्वेषण नेति नेति के सिद्धांत पर आधारित है। जो सबसे सूक्ष्म है वह सामान्य बुद्धि या इन्द्रियबोध से परे है। जब तक भ्रम रुपी बादल चित्त पर मंडराते रहेंगे सत्य छिपा ही रहेगा। इसलिए विश्लेषणात्मक तर्क और सहज बोध के द्वारा धीरे धीरे जो जो भी सत्य नहीं है उसको बारी बारी से हटाया जाता है।
इसी तरह जब यह प्रश्न आता है कि “मैं कौन हूँ ” तब भी आरम्भ इससे होता है कि मैं क्या क्या नहीं हो सकता ( “मैं शरीर नहीं हूँ” ,इत्यादि)। उपनिषदों में इस तरह के आत्म निरीक्षण के कई उदाहरण हैं। जब परतें खुलती जाती हैं तब साधक को धीरे धीरे अपने अस्तित्व की विराटता का अनुभव होने लगता है। फिर भी एक जीवनकाल में ईश्वरीय अनुग्रह के बिना सामान्य प्रयास के सहारे अपना सही स्वरुप जानना अत्यंत कठिन है। यदि “मैं कौन हूँ ” यह पता चल गया तब कोई और प्रश्न रहता ही नहीं।


इसके विपरीत प्रकृति द्वारा संचालित संसार में “मैं कौन हूँ ? ” , इसका उत्तर जानने वालों की कमी नहीं है। अपनी अपनी सुविधा और अहम् की आवश्यकता के हिसाब से व्यक्ति अपनी पहचान बताएगा। कोई अपने आप को अपने धर्म ,भाषा या विचारधारा से परिभाषित करेगा ,और किसी की पहचान उसकी उपलब्धि या व्यवसाय से होगी। सब अपने आप को इतने अच्छे से जानते हैं कि संसार के सागर में बहुत से सत्य तैर रहे हैं। वह आपस में टकराते रहते हैं और चक्र चलता रहता है।

प्रकृति का स्वरुप ही विभाजन और द्वैत पर निर्भर है। एकत्व का अनुभव माया के अस्तित्व के लिए ख़तरा है। अगर अधिकाँश व्यक्ति यह समझ जाएं कि मैं क्या नहीं हूँ , यह देख लें कि धर्म , विचारधारा , या जातीयता के आगे भी कुछ है , तब किसी प्रकार के घर्षण की संभावना ही कहाँ बचेगी ? यदि सब एक ही है तो स्वयं ही स्वयं से कैसे टकराएगा ? “अपनी सामाजिक या व्यक्तिगत पहचान के परे मैं क्या हूँ ? ” , यह एक पश्न ही जो जो भी अर्जित किया गया है उसको नष्ट कर देगा , इसलिए इसके पूछे जाने की संभावना ही बहुत कम है ।


फिर भी , सांसारिक दृष्टिकोण से भी , ” मैं इन सबमें से कुछ भी नहीं हूँ” ज्यादा विवेकपूर्ण विकल्प लगता है। जो यहाँ अपने आप को जानने का दम्भ भरते हैं उनका हाल भी तो प्रत्यक्ष ही है। ऐसे लोग ट्रैफिक सिग्नल पर चालान से बचने के लिए अपना परिचय देते ही रहते हैं। नेति नेति ही ठीक है।अज्ञान के बोध में संभावनाएं तो छुपी हैं ।

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मनसागर

मन अथाह सागर है। इसमें छोटी बड़ी लहरे उठती रहती हैं। तूफ़ान आते रहते हैं , प्रतिक्रिया शून्य व्यक्ति एकाएक इनमे फँस जाता है और बचने के लिए और कई तूफानों का निर्माण कर लेता है। कब कौन सा विचार सतह पर आ जाए और किसी छद्म वास्तविकता का बोध करा दे कोई नहीं जानता। तो मनुष्य कर क्या सकता है ? क्या ऐसे लहरों के साथ ऊपर नीचे होते रहना ही उसकी नियति है ? क्या इस सागर के क्षेत्र का अवलोकन किया जा सकता है ? क्या इस सागर में ही रहते हुए इसकी सामग्री को तटस्थ भाव से देखा जा सकता है ?


विवेक रुपी यन्त्र का उपयोग करके इस सागर की तह तक पहुंचा जा सकता है। वहां जाकर क्या दिखेगा ? यही , कि जिन प्रवत्तियों , सिद्धांतों , विचारधाराओं और छद्म वास्तविकताओं ने भय रुपी कोहरे से भ्रमित करके मनुष्य को बंधक बनाया हुआ है , सब यहीं पड़ी हुई हैं। और यह सागर सबका है। यही वैश्विक मन है। सब यहीं से सामग्री उठा रहे हैं। मेरा सागर तुम्हारे सागर से भिन्न नहीं है। लहरों पर डोलते डोलते तुम यह समझने लगे हो क़ि तुम्हारा अस्तित्व , तुम्हारा सत्य और समस्याएँ औरों से भिन्न हैं। तुम देख ही नहीं पा रहे। देख भी तब पाते जब स्वयं को इन लहरों से पृथक कर पाते। इसके लिए भी इसके स्रोत तक पहुंचना पड़ेगा , सामग्री देखनी पड़ेगी। वही सामग्री जो सबकी एक ही है , सब एक दूसरे से टकरा रहे हैं और नयी लहरों का जन्म हो रहा है।


जब कोई व्यक्ति अपने विवेक का प्रयोग करके इस सागर की क्रीड़ाओं से अप्रभावित रहने की युक्ति निकालता है , तब वह पलायन नहीं कर रहा होता , अपितु इसी सागर की सीमाओं में रहते हुए इसकी सामग्री और इसके क्रियाकलाप समझ रहा होता है। महात्मा बुद्ध दुःख से दूर नहीं गए थे , अपितु सुख और दुःख रुपी लहरों के स्रोत तक गए थे। वह यह समझ गए थे कि जीवन कि स्थितियॉं इन लहरों के आने जाने का स्थूल चित्रण मात्र हैं।


क्या मनुष्य का अस्तित्व इन लहरों पर ही निर्भर है ? क्या यही उसका भाग्य है ? यदि बचने के मार्ग नहीं हैं तब भी इनसे विलग कैसे रहा जाए ?इस सागर में रहते हुए इसकी सामग्री का सदुपयोग कैसे किया जाए ? यही प्रश्न हमारे समक्ष भी रहते हैं ,विशेष रूप से तब जब यह उठापटक कष्टदायी लगने लगती है।

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प्यासा

हमारे यहाँ यह मान्यता है कि मृत्यु के बाद लोगों की आलोचना नहीं की जानी चाहिए। जो चला गया उसको मुक्ति मिलनी चाहिए। नए लोगों को ढूंढना चाहिए। यह अच्छी बात है कि जाने वाला अकेले जाता है , नहीं तो शायद कुछ लोग जिनका मन कभी नहीं भरता उसके पीछे पीछे परलोक तक पहुँच जाते। यह शायद मृत्यु की उपलब्धि है जो चारों ओर से घिरे व्यक्ति को एकदम से कहीं दूर ले जाती है। लेकिन बात यहाँ जीवन की है।

मृत्यु के बाद क्या होता है यह बस कल्पना है। बात जीवन की और जीवित लोगों की होनी चाहिए। मृत्यु के बाद का जीवन कल्पना या सत्य हो न हो , यहाँ का जीवन तो सत्य है। अगर स्वप्न भी है तो यही जीवन है। अगर मृत्यु का सम्मान है तो क्या जीवन का है ? क्या जीवित लोगों को यहाँ सम्मान मिलता है ?फिल्म प्यासा में जब तक कवि विजय जीवित था उसको कुछ नहीं मिला। जब वह वापस आया तो उसने देखा कि उसको जो जीवन से नहीं मिला वही मृत्यु से मिल गया। फिर उसको जीवित पाकर वही लोग जो उसके चले जाने से दुखी थे उसके जीवन के पीछे पड़ गए। यही हमारे यहाँ होता है। सम्बन्ध किसी भी तरह का हो , कारण कोई भी हो – व्यक्ति को आघात लगते रहेंगे। समाज , विपक्षी , शुभचिंतक इत्यादि शब्दों से और आचरण से यातनाएं देते रहेंगे। क्योंकि जीवित व्यक्ति का कोई मूल्य नहीं है। मरने के बाद के प्रेत का भय ज्यादा है। जीवित व्यक्ति बस किसी न किसी रूप में किसी और की आकाँक्षा की पूर्ति का स्रोत भर है बस।जीवित रहते हुए सम्बन्ध सुधारने की चेष्टा नहीं होती है क्योंकि उसमे अहम् को चोट लगती है। किसी के जाने के बाद लम्बे चौड़े सन्देश देकर ऐसा दिखाया जाता है जैसे मन में कभी मैल रहा ही न हो।

जीवन की सार्थकता इसी में है की जीवन का सम्मान हो। अगर मतभेद है भी तो उसके साथ रहा जाए। दो मनुष्य एक जैसे नहीं हो सकते। शरीर के अंदर ही सत्त्व , रज और तमस में मतभेद रहते है , यहाँ तो अलग अलग व्यक्तिओं की बात है। विष का असर तभी है जब तक कोई जीवित है , जाने के बाद विषधर और विष दोनों शक्तिहीन हैं। यदि जीवित व्यक्ति के अस्तित्व और संवेदनाओं का ध्यान रखा जाए तो मृत व्यक्ति को कृत्रिम श्रद्धांजलि देने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। नहीं तो जाने वाला और पीछे रह जाने वाले दोनों “प्यासे” रहेंगे |

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कुतर्क

तर्क में बुद्धि , वाक्चातुर्य और अनुभव का समावेश है । कितने ही ज्ञानियों ने शब्दों के हेर फेर से जिज्ञासुओं को नयी दिशा दी । ऐसा लगा जैसे जो नहीं जानते थे वह सब जान गए । सत्य प्रकट हो गए । भीड़ जुटने लगी । भारी भरकम आध्यात्मिक सन्देश विश्व भर में प्रवाहित होने लगे । क्यों कैसे क्या हुआ इस पर सबकी राय बनने लगी । लेकिन इस तर्क ने दिया क्या ? अगर पाने को कुछ था ही ?कितने बुद्ध आ गए ? वही प्रश्न , वही भय , वही अधूरेपन की छटपटाहट ।

तर्क की अपनी सीमाएं हैं । वह व्यक्ति को अद्भुत यात्राएं कराता है और अचानक बीच में ही पटक देता है । विभिन्न तरह के दर्शन और विचारधाराओं ने मनुष्य का बौद्धिक भोग अच्छे से कराया है । लेकिन कोई विचारधारा या दर्शन कितना भी तर्कसंगत क्यों न हो , मनुष्य को भौतिकता के अलग अलग तलों पर ही घुमाता रहता है , क्योंकि बुद्धि और इन्द्रियानुभूति की अपनी सीमाएं हैं ।लौट के तो घर ही आना है । उसी मन के भीतर । जो भी खेल चला उसी माया के बुलबुले के अंदर चला।अगर सत्य के प्रति श्रद्धा नहीं है तब तर्क में मूर्खता ही है। बिना श्रद्धा का तर्क बस अहम् का विस्तार है।

मूर्खता शुद्धतम भक्ति में भी है । जब “मैं” नहीं रहा तो मन क्या करेगा । भक्त के पास शब्दकोष नहीं , बस समर्पण और श्रद्धा है । न उसको किसी को तर्क से पराजित करना है , न ही भौतिक जगत की कोई भी विजय ,”उसके” सामने उसकी पराजय से श्रेठ हो सकती है। तर्कशास्त्री “परमानंद ” के विषय में समझाएगा और सुनने वाले स्वयं को ब्रह्म समझकर मुग्ध हो जाएंगे। भक्त को नहीं पता “आनंद” क्या है फिर भी वह जिस भी अवस्था में रहेगा वही आनंदस्वरूप होगी । जब मैं ही नहीं रहा तब चोट कहाँ लगेगी , माया ही नहीं तब भय का क्या अस्तित्व ? माया के बुलबुले को शुद्धतम भक्ति संभवतः सरलता से भेद सकती है । जिस बोध ने सिद्धार्थ को बुद्ध बना दिया वह बौद्धिक तर्क से नहीं , संपूर्ण अस्तित्व की एकरूपता को देखने पर ही होगा , तब तक उस एक सत्य को अलग अलग तरह से बताया जाता रहेगा और कुछ पा लेने की इच्छा में लोग शब्द-मायावियों के यहाँ एकत्रित होते रहेंगे ।

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पुनर्जन्म

जो रास्ता वीरान है , अगर वही अच्छा लगे तो उसी पर चल लो । मार्ग सही है या गलत यह कौन बताएगा । जो उस पर चले ही नहीं अगर उनसे पूछोगे तो तरह तरह की कमियाँ बता देंगे। इतना डरा दिए जाओगे कि वही पुराना वाला नरक ही सुरक्षित लगने लगेगा । वैसे भी जो देख लिया है ,उसमे एक तरह की सुरक्षा है , सांत्वना है , कि इससे ज्यादा या इस तरह का अन्धकार और कहीं नहीं मिल सकता। और सबसे अच्छी बात कि इस अन्धकार कि आदत पड़ गयी है। कुछ नया करने में ख़तरा है। तुमको रोकने वालों के अवचेतन मन में भी यह बात छुपी रहती है कि साथ में ही नरक भोग लो , कहीं ऐसा न हो अकेले निकल जाओ और स्वर्ग पा लो । एक बार निकल लिए , फिर पीछे मुड़ के मत देखना। एक बार निकल लिए तो सब नया होगा। सुख भी दुःख भी। लेकिन तुम यह मत सोचना कि कुछ नया हो जाएगा। घटनाएं यही सब पुरानी दुनिया वाली होंगी लेकिन तुमको कुछ नहीं होगा । और वापस मत आना। उसमें खतरा है। फिर से पुराने ढर्रे पर नहीं चल पाओगे । एक बार शरीर छोड़ दिया तो फिर नहीं पा पाओगे। मिलना इस नयी दुनिया में भी कुछ नहीं है जैसे पुरानी में भी कुछ नहीं था। लेकिन तुम चले इसलिए जीवित हो। तुम्हारी यात्रा ही तुम्हारा पुनर्जन्म है।

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मैं ठीक हूँ

मैं ठीक हूँ। मुझे क्या हो सकता है। बचपन में खुद को असहाय और परम आश्रित पाया। फिर जीवन मुझे उलटे सीधे टेढ़े मेढ़े रास्तों पर घुमाता रहा। हर बार मुझे लगता रहा कि इस बार कुछ अलग होगा। कुछ ऐसा जो जीवन में क्रान्ति ला देगा। लेकिन हुआ क्या ? हर क्रान्तिपूर्ण घटना एक समय के बाद सामान्य लगने लगी। हर दुर्घटना से मन ने समझौता कर लिया। मुझको क्या हुआ ? मैं फिर भी ठीक ही रहा। कितना कुछ बदल गया। दुनिया को मैं जैसा बचपन में दिखता था अब मैं वैसा कहाँ रहा ? अब तो आइना भी मुझे नहीं पहचानता। हाँ चुनौतियाँ आयीं। शरीर और मन पर आघात हुए। घटनाओं और परिस्थितिओं ने मन और शरीर को ऐसा नचाया कि कुछ समय के लिए लगा कि मैं ठीक नहीं हूँ। कई बार ऐसा लगा कि मेरा अस्तित्व ही संकट में है। लेकिन हुआ क्या ? मैं तो अब भी ठीक ही हूँ। मैं हूँ तो वही जो बचपन से वैसा ही है। मुझमे कभी कोई बदलाव हुआ ही नहीं। होता भी कैसे ? मैं परदे के पीछे जो हूँ। कभी कभी स्वयं को नाटक का पात्र ही समझ लेता हूँ। तब सब कुछ बड़ा दुःस्वप्न सा प्रतीत होता है। कभी कभी कुछ प्रसंगों से इतनी आसक्ति हो जाती है की अगला दुःस्वप्न ही मुझे अपने अस्तित्व का बोध कराता है। मैं शाश्वत हूँ। शरीर रहे न रहे , यह आकृति विकृत हो जाए , पाप पुण्य का निपटारा हो जाए , जो जो इस जीवन में इकठ्ठा किया है वो सब रहे न रहे , वो स्मृतियाँ , मोह के बंधन रहें न रहें , मैं तो रहूंगा। अपने आनंद में। पर्दा कभी भी गिरे।

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नया सत्य

सत्य बस एक ही हो सकता है। वेद कहते हैं की सत्य को जानने के अलग अलग तरीके हो सकते हैं लेकिन फिर भी वह रहेगा एक ही।यह अलग बात है कि वही सत्य समय के साथ दूषित होता रहता है और उसी दूषित सत्य को अलग अलग विचारधारा के लोग अपना अपना परम सत्य मान लेते हैं। भगवद गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन को यही बात समझाते हैं कि जिस सत्य की वह बात करने जा रहे हैं वह पहले भी सुपात्र लोगों को बताया जा चुका है , लेकिन आज की परिस्थिति में इसकी फिर से बात करना अनिवार्य हो गया है। ज्ञान पुराना या नया हो सकता है। सीमित भी हो सकता है। वह तथ्यों , अनुभवों और इन्द्रियों की सीमाओं के अधीन है। ज्ञान कई तरह का हो सकता है , ज्ञानी में अभिमान और पाखण्ड भी हो सकता है ,लेकिन सत्य वही है जो इन्द्रियों की सीमाओं से परे है , जो माया के आवरण से ढका नहीं है , शाश्वत है , शब्दों और मनुष्य की परिभाषाओं के अधीन नहीं है। ज्ञानी कोई भी हो सकता है लेकिन सत्य का दर्शन दुर्लभ है। उसके लिए मन और इन्द्रियों के परे जाना होगा , अहम् को छोड़ना होगा , शून्य को समझना होगा। समझ भी लिया फिर सत्य के साथ जीना और भी कठिन है। क्योंकि सत्य भाषा या शब्दों से परे है इसलिए अलग अलग कालों में उसका दर्शन जिन्होंने भी किया ,उन्होंने उसको अपने अपने तरीके से सामने लाने का प्रयत्न किया, या सत्य में ही जीवन जिया और लोगों ने अपने हिसाब से उसको समझ लिया। महात्मा बुद्ध ने जिस सत्य को जाना और जिया वह भगवद गीता के या उपनिषद् के सत्य से अलग नहीं है। लेकिन उसकी सार्थकता यह है की जिस काल में उनका अवतरण हुआ उस समय के लोगों को उस काल और परिस्थिति के हिसाब से उन्होंने एक सुगम मार्ग दिखाया , सत्य को सरल और सामयिक बना दिया। इसी तरह कबीरदास जी ने जिस सत्य की बात की वह भी उनसे पहले कहे गए या जाने गए सत्य से अलग नहीं था लेकिन उनकी शैली ऐसी थी की परम गूढ़ बातें भी आम जनमानस तक सरलता से पहुँच गयीं। सुनने और जानने वाला आम आदमी इन्द्रियों के वश में होने के कारण अपने अपने हिसाब से अपनी पसंद का मार्गदर्शक चुन लेता है , उसको लगता है उसने कोई नया सत्य समझ लिया है , लेकिन जब अंत में उसको स्वयं अनुभव होते हैं तब वह जान जाता है कि जो भी माया के पार जा सकेगा ,उसको उस एक ही परम सत्य के दर्शन होंगे । इसीलिए सत्य एक ही रहेगा। जो उसको जानेगा , वह अपने भाव और अनुभव के हिसाब से उसको लोगों तक पहुंचाएगा। देश काल परिस्थिति के हिसाब से उसका वर्णन किया जाएगा लेकिन वो रहेगा एक ही। इस बात का झगड़ा व्यर्थ है कि किसका सत्य ज्यादा गहरा है ,नया है और कितना मौलिक है। सत्य है तो मौलिक है , सत्य है तो गहरा है , बाकी सब पाखण्ड है।

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उत्तरदायी कौन?

उत्तरदायी वही है जो हर बार होता है । समझदारी की अपेक्षा उसी से है जो समझदार है । बाकी सब तो अबोध हैं । उनसे उत्तर कौन मांगेगा।यही हुआ है यही होगा । धर्म का पालन वही करे जो करता आया है । अधर्मी के पास पूरी स्वतंत्रता है हर तरह के नीति नियम भंग करने की ।क्योंकि वो ऐसा ही है । उसको समाज ने ऐसा ही स्वीकार कर लिया है । जिसने कभी अपशब्द नहीं कहे अगर वो कुछ उल्टा सीधा कह दे तो पूरी दुनिया उसको घूरने लगेगी । जो कभी नहीं बोला अगर उसकी आवाज़ निकल जाए तो कोई स्वीकार नहीं करेगा । प्रश्न दुर्योधन के लिए नहीं हैं । प्रश्न हैं राम , कृष्ण ,बुद्ध और युधिष्ठिर के लिए । जिसने सदैव मन विचार और कर्म की उत्कृष्टता बनाए रखी है वही जीवन भर ,हर परिस्थिति में ऐसा करता रहे।उसको समाज से कोई छूट नहीं मिलेगी । समाज के बाकी लोग उनसे उत्तर मांगने के लिए स्वतंत्र हैं । वे यह तो कह सकते हैं की राम ने ऐसा क्यों किया या कृष्ण ने युद्ध में ऐसी नीति क्यों अपनायी ,लेकिन स्वयं अपने जीवन में , अपनी तरह की मानसिकता में , अपने स्तर के मानदंडों में वे प्रसन्न हैं । ऐसे लोग ही प्रश्न पूछ सकते हैं ।

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सहज अभिनय

” मरोगे तुम ! , मैंने गुस्से में कहा। ” तुम भी मरोगे ! ” ,उसने भी पलटकर कह दिया। बात बराबर की जो होनी थी।अगर सभी झगड़े इतने बोधपूर्ण तरीके से और सत्य की पृष्ठ्भूमि में हों तो दुनिया में कोई झंझट ही न रहे।
ठीक ही कहा उसने । एक न एक दिन तो सब बराबर हो ही जाएंगे। लगभग उतनी ही जगह में। हैं तो अभी भी , बस स्वप्न अलग अलग देख रहे हैं।बस वृत्त के अलग अलग बिंदुओं पर खड़े हैं इसलिए दृष्टि भ्रमित हो गयी है।
नाटक में किसकी हार जीत होती है ? कौन सा पात्र नाटक के बाद खुद को विजयी पाता है ? हाँ बस इतना होता है किसी का अभिनय ज़्यादा अच्छा होता है , कोई अपनी भूमिका में एकदम समा जाता है , कोई अपने किरदार से इतना जुड़ जाता है कि परदे के पार जो कुछ है उसको भूल जाता है ,और कोई अनमने ढंग से अपने संवाद बोलता जाता है।
हर किसी की भूमिका एक सी नहीं होती। हर नाटक में कुछ मोड़ आते हैं जिनके बिना कथा आगे ही नहीं बढ़ सकती। इनके लिए मंझे हुए अभिनेता चाहिए होते हैं। वो नाटक की मांग के हिसाब से बाकी पात्रों से अलग होते हैं। उनका भोग , सुख दुःख औरों से अलग होता है। उनके होने से कथा आगे बढ़ती है , परिस्थितिओं का निर्माण होता है और बाकी पात्रों को प्रसंग मिलता है। मुख्य पात्रों के अलावा जो पात्र होते हैं उनके संवाद सीमित होते हैं। इसका अर्थ ये नहीं कि उनके बिना नाटक पूर्ण हो जाता है। उनका होना ही पर्याप्त है। जैसे ही पर्दा गिरता है , सब एक बराबर हो जाते हैं। जिसको जो भी मिला , मंच पर मिला , जो गया वहीँ पर गया। जिसने अच्छा अभिनय किया , हो सकता है अगले नाटक में उसको कोई अच्छी भूमिका मिल जाए , लेकिन पर्दा गिरने के बाद वह कोई विश्व विजेता नहीं है। न ही उसके पास इतनी स्वतंत्रता थी कि वह कथा के मूल रूप में बदलाव कर सके। हाँ ,जो भी कथाकार के जितना समीप होगा , उसके द्वारा दी गयी भूमिका से संतुष्ट होगा , उसका अभिनय उतना ही सहज होगा।
फिर असामानता कहाँ है ? शायद मंच पर है। कुछ समय के लिए है। और कुछ समय के लिए अपनी जीत हार को अपने अस्तित्व से जोड़ देना मूर्खता है। कथाकार द्वारा दी गयी भूमिका को कोसना बचपना है। दूसरे पात्रों से ईर्ष्या करना भी मूर्खता है , कोई अपनी भारी भरकम पोषाक और आभूषण मंच के बाहर पहनके नहीं घूमेगा , सबकुछ किराये का है , कथाकार का है ,यह ऐश्वर्य क्षणिक और सीमित है।लेकिन अभिनय फिर भी अच्छा होना चाहिए।