एक बार एक व्यक्ति का संसार से मन ऊब गया । उसको लगा भौतिक आपाधापी उसके लिए नहीं है । उसने घर नगर छोड़ दिया, और किसी शांत जगह जाकर बस गया । धीरे धीरे उसको “ज्ञान” की प्राप्ति हुई और उसको लगने लगा कि बिना बांटे कुछ भी प्राप्त करने का क्या अर्थ ? तब उसने एक आश्रम स्थापित किया और विभिन्न विषयों पर ज्ञान बांटना शुरू किया । उसके प्रयासों से एक पंथ का निर्माण हुआ और उसकी प्रसिद्धि जगह जगह फैलने लगी। धीरे धीरे उसको एक चिंता सताने लगी । उसके जाने के बाद उसके आश्रम और संपत्ति का क्या होगा ? उसने एक उत्तम उत्तराधिकारी की तलाश शुरू की। बिना इसके उसकी सालों की अर्जित की हुई विरासत के नष्ट हो जाने का खतरा था । उसके पास तरह तरह के प्रलोभन और प्रस्ताव आने लगे। नींद तो उसकी जा ही चुकी थी । एक दिन रात में उसको यह विचार आया कि क्या होते होते क्या हो गया । वह सोचने लगा । “मेरी आत्मज्ञान की यात्रा कैसे रत्न जड़ित आध्यात्मिक प्रासाद में विलीन हो गई । जितनी कुटिलता एक सादा गृहस्थ जीवन जीने में भी न उपयोग होती उससे कहीं अधिक तो मैंने इस आध्यात्मिक पथ पर लगा दी ।” लेकिन पीछे जाना अब उसके लिए संभव नहीं था । एक सन्यासी की आम जीवन में पुनः वापसी पर कितनी भर्त्सना होगी ? उसकी वर्षों की अर्जित की हुई देवतुल्यता का ह्रास हो जाएगा । अनुयायियों का क्या होगा ? जिस जगत को मिथ्या समझकर उसने सन्यास ग्रहण किया था , अब वही जगत उसके आध्यात्मिक पथ को मिथ्या बताएगा । परमात्मा क्या , वह तो स्वयं से भी बहुत दूर हो चुका था । उसको बात समझ में आ गई । पीछे तो लेकिन वो जा नहीं सकता था ? और गया भी नहीं।
गृहस्थ हो या सन्यासी , ऐसा कौन है , ऐसा क्या है जो अस्तित्व के नियमों के अधीन नहीं है ?
अपने सत्य से कौन यहाँ भाग सका है ?
जितनी भौतिकता किसी शहर में ईंट पत्थर के बने मकान में है उतनी ही किसी दुर्गम पहाड़ी पर बने आश्रम में भी है। तत्त्व एक ही है। इसी प्रकृति से युक्त है।
मनुष्य उसका त्याग कर सकता है जिसका स्रोत वह स्वयं हो । जो अपना है ही नहीं उसका त्याग करना बस ढोंग है। प्राणों का प्रवाह , शरीर की आंतरिक गतिविधियां , अस्तित्व के नियम इत्यादि , मनुष्य की आज्ञा पर निर्भर नहीं हैं । कुछ है जो हमेशा से है , उसी ने मनुष्य को जन्म दिया है । जब अपने उद्गम का ही ज्ञान नहीं , जब अंत का कुछ पता नहीं , तब प्रथम से अंतिम श्वास के मध्य त्याग का खेल करना बस अपने अहं को पोषण देना है । जिसको अधिकांशतः आध्यात्मिक पथ समझा जाता है , पलायन उसका मुख्य बिन्दु है । जीवन के सत्य को जो देख लेता है उसके लिए भीड़ भाड़ वाले बाज़ार और एकांत में बने आश्रम में कोई भेद नहीं होता है । जो सम हो गया वही सन्यासी है । उसके अंदर परिस्थितियों के प्रति , सुख दुख समेत समस्त द्वैत के प्रति समता और स्वीकार्यता है । उसको पता है कि इधर से उधर भागना अस्थायी शांति ही देगा । वह जानता है कि भीतर और बाहर की किसी भी दौड़ में अपने केंद्र में निरंतर स्थित रहना ही सन्यास है , यही धार्मिकता है , यही बोध है ।
कबीरदास कहते हैं – “माया छाया एक सी, बिरला जाने कोय । भागता के पीछे लगे, सम्मुख भागे सोय ” ॥