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सहज अभिनय

” मरोगे तुम ! , मैंने गुस्से में कहा। ” तुम भी मरोगे ! ” ,उसने भी पलटकर कह दिया। बात बराबर की जो होनी थी।अगर सभी झगड़े इतने बोधपूर्ण तरीके से और सत्य की पृष्ठ्भूमि में हों तो दुनिया में कोई झंझट ही न रहे।
ठीक ही कहा उसने । एक न एक दिन तो सब बराबर हो ही जाएंगे। लगभग उतनी ही जगह में। हैं तो अभी भी , बस स्वप्न अलग अलग देख रहे हैं।बस वृत्त के अलग अलग बिंदुओं पर खड़े हैं इसलिए दृष्टि भ्रमित हो गयी है।
नाटक में किसकी हार जीत होती है ? कौन सा पात्र नाटक के बाद खुद को विजयी पाता है ? हाँ बस इतना होता है किसी का अभिनय ज़्यादा अच्छा होता है , कोई अपनी भूमिका में एकदम समा जाता है , कोई अपने किरदार से इतना जुड़ जाता है कि परदे के पार जो कुछ है उसको भूल जाता है ,और कोई अनमने ढंग से अपने संवाद बोलता जाता है।
हर किसी की भूमिका एक सी नहीं होती। हर नाटक में कुछ मोड़ आते हैं जिनके बिना कथा आगे ही नहीं बढ़ सकती। इनके लिए मंझे हुए अभिनेता चाहिए होते हैं। वो नाटक की मांग के हिसाब से बाकी पात्रों से अलग होते हैं। उनका भोग , सुख दुःख औरों से अलग होता है। उनके होने से कथा आगे बढ़ती है , परिस्थितिओं का निर्माण होता है और बाकी पात्रों को प्रसंग मिलता है। मुख्य पात्रों के अलावा जो पात्र होते हैं उनके संवाद सीमित होते हैं। इसका अर्थ ये नहीं कि उनके बिना नाटक पूर्ण हो जाता है। उनका होना ही पर्याप्त है। जैसे ही पर्दा गिरता है , सब एक बराबर हो जाते हैं। जिसको जो भी मिला , मंच पर मिला , जो गया वहीँ पर गया। जिसने अच्छा अभिनय किया , हो सकता है अगले नाटक में उसको कोई अच्छी भूमिका मिल जाए , लेकिन पर्दा गिरने के बाद वह कोई विश्व विजेता नहीं है। न ही उसके पास इतनी स्वतंत्रता थी कि वह कथा के मूल रूप में बदलाव कर सके। हाँ ,जो भी कथाकार के जितना समीप होगा , उसके द्वारा दी गयी भूमिका से संतुष्ट होगा , उसका अभिनय उतना ही सहज होगा।
फिर असामानता कहाँ है ? शायद मंच पर है। कुछ समय के लिए है। और कुछ समय के लिए अपनी जीत हार को अपने अस्तित्व से जोड़ देना मूर्खता है। कथाकार द्वारा दी गयी भूमिका को कोसना बचपना है। दूसरे पात्रों से ईर्ष्या करना भी मूर्खता है , कोई अपनी भारी भरकम पोषाक और आभूषण मंच के बाहर पहनके नहीं घूमेगा , सबकुछ किराये का है , कथाकार का है ,यह ऐश्वर्य क्षणिक और सीमित है।लेकिन अभिनय फिर भी अच्छा होना चाहिए।

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