मैं ठीक हूँ। मुझे क्या हो सकता है। बचपन में खुद को असहाय और परम आश्रित पाया। फिर जीवन मुझे उलटे सीधे टेढ़े मेढ़े रास्तों पर घुमाता रहा। हर बार मुझे लगता रहा कि इस बार कुछ अलग होगा। कुछ ऐसा जो जीवन में क्रान्ति ला देगा। लेकिन हुआ क्या ? हर क्रान्तिपूर्ण घटना एक समय के बाद सामान्य लगने लगी। हर दुर्घटना से मन ने समझौता कर लिया। मुझको क्या हुआ ? मैं फिर भी ठीक ही रहा। कितना कुछ बदल गया। दुनिया को मैं जैसा बचपन में दिखता था अब मैं वैसा कहाँ रहा ? अब तो आइना भी मुझे नहीं पहचानता। हाँ चुनौतियाँ आयीं। शरीर और मन पर आघात हुए। घटनाओं और परिस्थितिओं ने मन और शरीर को ऐसा नचाया कि कुछ समय के लिए लगा कि मैं ठीक नहीं हूँ। कई बार ऐसा लगा कि मेरा अस्तित्व ही संकट में है। लेकिन हुआ क्या ? मैं तो अब भी ठीक ही हूँ। मैं हूँ तो वही जो बचपन से वैसा ही है। मुझमे कभी कोई बदलाव हुआ ही नहीं। होता भी कैसे ? मैं परदे के पीछे जो हूँ। कभी कभी स्वयं को नाटक का पात्र ही समझ लेता हूँ। तब सब कुछ बड़ा दुःस्वप्न सा प्रतीत होता है। कभी कभी कुछ प्रसंगों से इतनी आसक्ति हो जाती है की अगला दुःस्वप्न ही मुझे अपने अस्तित्व का बोध कराता है। मैं शाश्वत हूँ। शरीर रहे न रहे , यह आकृति विकृत हो जाए , पाप पुण्य का निपटारा हो जाए , जो जो इस जीवन में इकठ्ठा किया है वो सब रहे न रहे , वो स्मृतियाँ , मोह के बंधन रहें न रहें , मैं तो रहूंगा। अपने आनंद में। पर्दा कभी भी गिरे।
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