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शबरी

माँ शबरी की कथा से आम भारतीय परिचित है। भील समुदाय की एक वृद्ध स्त्री को श्री राम ने दर्शन दिए और नवधा भक्ति का उपदेश दिया । लेकिन शबरी शबरी कैसे बनीं ? उन्होंने ऐसी कौन सी पात्रता अर्जित कर ली जो समस्त शास्त्रों के ज्ञानी, प्रकांड विद्वान या प्रथापूजक भी अपने जीवनकाल में नहीं पा सके ?

शबरी शुद्ध और मुक्त विचार ,मुमुकक्षत्व और स्वतंत्रता की प्रतीक हैं। उनके सम्बन्ध में एक कथा और प्रचलित है। वह भील समुदाय से थीं । कहा जाता है कि अपने विवाह के समय उन्होंने अपने पिता से हज़ारों पशुओं के लाए जाने का कारण पूछा । तब उनको बताया गया कि विवाह के “शुभ” अवसर पर हज़ारों पशुओं  की बलि की प्रथा निभाई जानी थी । इस बात से वह अत्यंत खिन्न हो गयीं। उस समय उनके क्या भाव रहे होंगे ? ” यह कैसी मूर्खता है ? मेरे विवाह से इन निरपराध पशुओं की हत्या का क्या सम्बन्ध है ? ये कैसा उत्सव है ? ये कौन सी शुभता है जहाँ एक तरफ आरम्भ है और दूसरी तरफ इतने जीवनों का अंत किया जा रहा है ? इस प्रथा के रहने का लाभ तो इसके रक्षक ही जानें लेकिन मैं इस मूढ़ता का बोझ नहीं लूँगी।  हाँ मैं एक स्त्री हूँ , मेरा विवाह मेरे और मेरे परिवार के लिए बहुप्रतीक्षित क्षण है , फिर भी सर्वप्रथम मैं एक शुद्ध चेतना हूँ। मेरा अपना विवेक है। इन पशुओं का क्रंदन इन ढोल नगाड़ों पर हमेशा भारी पड़ेगा। ”  फिर उन्होंने गृह त्याग दिया और अपनी आत्मिकता की रक्षा के लिए एक दुर्गम मार्ग चुन लिया। वंचित समुदाय से होने के कारण उनको काफी समय भटकने के बाद अंततः  ऋषि मतंग के आश्रम में शरण मिली ।


माँ शबरी पूर्णतः राममय हो गयीं और ऋषि मतंग के कहे अनुसार प्रतिक्षण श्री राम के आने की प्रतीक्षा करने लगीं । अपने आराध्य की प्रतीक्षा करते रहना और सदैव सतर्क रहना – कि शायद यही क्षण हो , शायद आज , शायद आज। यही भक्ति की परम अवस्था है। यहाँ प्रतीक्षा दर्शन से भी ऊपर की अवस्था हो गयी।  
लेकिन आज भक्ति की नहीं शक्ति और स्वतंत्रता की बात करनी है। किसी चली आ रही प्रथा की औचित्यहीनता को समझना और फिर जीवन में ऐसी किसी मूर्खता का भागी ना बनना , यह आध्यात्मिक उन्नति और उच्च चेतना का द्योतक है। यह समझना कि निरीह पशुओं के वध का विवाह या किसी भी उत्सव से कोई सम्बन्ध नहीं है , फिर एक निर्णय से अपने जीवन की दिशा ही बदल देना , महानता का प्रतीक है। यह समझना कि एक सम्बन्ध जोड़ने के अवसर पर लाखों जीवों का प्राणों से सम्बन्ध तोड़ना हास्यास्पद है  , एक “जीवित” मनुष्य का लक्षण है। इसके अतिरिक्त एक स्त्री होते हुए , उस समय के परिवेश में स्वयं को एक चैतन्य का रूप समझकर निर्णय लेना भी अद्भुत रहा होगा। जो जीवन में मुक्त होना सीख लेता है वही मृत्योपरांत भी मुक्ति का अनुभव कर सकता है। जब मनुष्य पर्याप्त रूप से सुपात्र हो जाए तब ही शाश्वत सत्य रुपी श्री राम दर्शन देते हैं।

माँ शबरी का मातृत्व और भक्ति स्वरुप तो अतुलनीय है ही , उनका करुणा और विवेक युक्त व्यक्तित्व भी अनुकरणीय है। कहाँ तो आजकल के विवाह  निरीह पशुओं के भक्षण के बिना पूर्ण नहीं होते , और उस कालखंड में सामजिक रूप से पिछड़े समुदाय की एक महिला अपने मूल्यों की रक्षा के लिए विवाह ही नहीं करती और चली आ रही प्रथा की आग पर पानी डाल कर आगे बढ़ जाती है।
क्या आज ऐसा हो सकता है ? अत्यंत कठिन है। प्रथा का ठुकराया जाना तो बहुत आगे की बात है, उसकी निरर्थकता पर बात करना भी मनुष्य को अधार्मिक बना देता है। धर्म ही हिलने डुलने लगता है। एक और बात ध्यान देने योग्य है। श्री राम ने किसी तथाकथित उच्च वर्ग के विद्वान पुरुष को नहीं चुना।भील समुदाय की एक वृद्ध स्त्री , जिसने जीवन में विवेक ,करुणा और सत्य को प्राथमिकता दी , जिसने प्रथाओं के ऊपर हृदय को वरीयता दी ,परम सत्य के सगुण स्वरुप को आगे बढ़ने का मार्ग बताती है।

जिन “विद्वानों” को मानस की चौपाइयाँ बीच से उठा उठा के पढ़ने , अनुवाद और अर्थ (अनर्थ) करने में रूचि हो , वो शबरी प्रसंग तक भी जाएं , और तुलसीदास जी की अभिव्यक्ति की विराटता से अभिभूत हों।