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बताऊँ मैं कौन हूँ?

वेदांत में सत्य का अन्वेषण नेति नेति के सिद्धांत पर आधारित है। जो सबसे सूक्ष्म है वह सामान्य बुद्धि या इन्द्रियबोध से परे है। जब तक भ्रम रुपी बादल चित्त पर मंडराते रहेंगे सत्य छिपा ही रहेगा। इसलिए विश्लेषणात्मक तर्क और सहज बोध के द्वारा धीरे धीरे जो जो भी सत्य नहीं है उसको बारी बारी से हटाया जाता है।
इसी तरह जब यह प्रश्न आता है कि “मैं कौन हूँ ” तब भी आरम्भ इससे होता है कि मैं क्या क्या नहीं हो सकता ( “मैं शरीर नहीं हूँ” ,इत्यादि)। उपनिषदों में इस तरह के आत्म निरीक्षण के कई उदाहरण हैं। जब परतें खुलती जाती हैं तब साधक को धीरे धीरे अपने अस्तित्व की विराटता का अनुभव होने लगता है। फिर भी एक जीवनकाल में ईश्वरीय अनुग्रह के बिना सामान्य प्रयास के सहारे अपना सही स्वरुप जानना अत्यंत कठिन है। यदि “मैं कौन हूँ ” यह पता चल गया तब कोई और प्रश्न रहता ही नहीं।


इसके विपरीत प्रकृति द्वारा संचालित संसार में “मैं कौन हूँ ? ” , इसका उत्तर जानने वालों की कमी नहीं है। अपनी अपनी सुविधा और अहम् की आवश्यकता के हिसाब से व्यक्ति अपनी पहचान बताएगा। कोई अपने आप को अपने धर्म ,भाषा या विचारधारा से परिभाषित करेगा ,और किसी की पहचान उसकी उपलब्धि या व्यवसाय से होगी। सब अपने आप को इतने अच्छे से जानते हैं कि संसार के सागर में बहुत से सत्य तैर रहे हैं। वह आपस में टकराते रहते हैं और चक्र चलता रहता है।

प्रकृति का स्वरुप ही विभाजन और द्वैत पर निर्भर है। एकत्व का अनुभव माया के अस्तित्व के लिए ख़तरा है। अगर अधिकाँश व्यक्ति यह समझ जाएं कि मैं क्या नहीं हूँ , यह देख लें कि धर्म , विचारधारा , या जातीयता के आगे भी कुछ है , तब किसी प्रकार के घर्षण की संभावना ही कहाँ बचेगी ? यदि सब एक ही है तो स्वयं ही स्वयं से कैसे टकराएगा ? “अपनी सामाजिक या व्यक्तिगत पहचान के परे मैं क्या हूँ ? ” , यह एक पश्न ही जो जो भी अर्जित किया गया है उसको नष्ट कर देगा , इसलिए इसके पूछे जाने की संभावना ही बहुत कम है ।


फिर भी , सांसारिक दृष्टिकोण से भी , ” मैं इन सबमें से कुछ भी नहीं हूँ” ज्यादा विवेकपूर्ण विकल्प लगता है। जो यहाँ अपने आप को जानने का दम्भ भरते हैं उनका हाल भी तो प्रत्यक्ष ही है। ऐसे लोग ट्रैफिक सिग्नल पर चालान से बचने के लिए अपना परिचय देते ही रहते हैं। नेति नेति ही ठीक है।अज्ञान के बोध में संभावनाएं तो छुपी हैं ।