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HINDI Perspectives

वर मांगो

“वत्स , वर मांगो । जो चाहो मांग लो ।”

” ठीक है प्रभु , इतने वर्षों से मांग ही रहे हैं , फिर मांग लेते हैं । कुछ रह जाएगा तो अगली बार ।”

मांगने में कोई समस्या नहीं है । जो है , उसे इच्छा भी होगी । कोई इच्छित वस्तु की प्राप्ति के लिए कर्म करेगा , कोई प्रार्थना , कोई दोनों करेगा । लेकिन ये प्रार्थना कैसी हो ? मांगने वाला कैसा हो ?

वर देने वाले को भी पता है कि मांगने वाले का क्षेत्र सीमित है । इसीलिए वो खुल के देता है । अहं के केंद्र से संचालित व्यक्ति क्या मांगेगा ? धन , समृद्धि , परिवार, स्वास्थ्य , आयु , संतान , शक्ति , प्रसिद्धि , बस , यही सब । वही पुराना । बात बस इन्ही सब में घूमकर खत्म हो जाती है । धर्म , देश , काल कोई भी हो – मांग एक जैसी ही होती है । कम से कम इस आधार पर विश्व बंधुत्व के सिद्धांत की पुष्टि हो जाती है । सब एक हैं । क्योंकि सबके मन भी एक ही हैं । बाहरी विभाजन बस दिखावा हैं , भीतरी मांगें सभी की एक जैसी ही हैं ।

आम इच्छाओं की यही समस्या है कि वो मन को अस्थाई में घुमाती रहती हैं । इच्छाएं तो असीमित हैं लेकिन असीम की नहीं हैं । वही चक्र है । कभी कभी किसी नचिकेता जैसे की कथा आ जाती है । नचिकेता कुछ नया मांग लेता है । यमराज उसको संसार में उपलब्ध उच्चतम से उच्चतम प्रलोभन देता है लेकिन नचिकेता खेल समझ चुका होता है । उसको शाश्वत में रुचि है । ऐसे ही ययाति भी अंततः भोग भोगकर थक जाता है , उसी चक्र में अमर्त्य होने की निरर्थकता वो समझ जाता है । याज्ञवल्क्य भी कात्यायनी और मैत्रेयी में अपनी संपत्ति बांटकर जाना चाहते हैं लेकिन मैत्रेयी भी खेल समझ चुकी हैं , उनको भी अल्पकालिक में रुचि नहीं है । वे याज्ञवल्क्य से पूछती हैं कि क्या यह सब पाकर मुझे अमरता प्राप्त हो जाएगी ? यदि नहीं तो इस सब का क्या औचित्य ? तो किस बात की प्रार्थना की जाए ?

जब मनुष्य ने अपने आप को विभिन्न इच्छाओं में विभाजित न किया हो तो तब उसकी ऊर्जा बचे । तब प्रार्थना में शक्ति हो । जब इच्छा ही सत्य को समर्पित हो तब कुछ घटे , क्योंकि तब ही अहं विलीन होगा । किसको पता है कि उसके लिए क्या श्रेष्ठ  है ? किसको यहाँ अस्तित्व के नियमों की समझ है ? जब अंतर्दृष्टि ही अहं से प्राच्छादित है तो इच्छा कैसे सही होगी ? जब मांगने वाला ही अज्ञान के केंद्र से संचालित है तब मांगते रहने का क्या अर्थ है ? प्रार्थना तब ही सार्थक है जब मांगने वाला जागृत अवस्था में हो । और मांगने वालों ने परमात्मा से भी बड़ा व्यापारिक संबंध रखा है । परमात्मा का अर्थ ही तब है यदि वह कुछ दे सकता हो । उसे तरह तरह के प्रलोभन दिए जाएंगे जिससे उसके निर्णय मनवांछित हों । मनुष्य ने ईश्वर को अपनी छवि में निर्मित कर दिया है । यहाँ प्रेम का कोई स्थान नहीं है । जो मिल गया उसके लिए कृतज्ञता नहीं है ।

जो ऊंचाई से आकृष्ट नहीं वो क्यों उड़ना चाहेगा ? जिसे अज्ञान ही अर्थपूर्ण लगे वो क्यों मुक्त होना चाहेगा ? जब अस्थायी की ही मांग है , तो शांति कैसे शाश्वत होगी ? ऐसे ही थोड़ी बार बार महिषासुर देवताओं को पराजित करते रहते हैं । जब मन पुराना है , मांग पुरानी है , तो परिणाम भी पुराने होंगे । कोरोना की समस्या वैश्विक थी । उस समय एकत्व था । उस समय परस्पर निर्भरता का बोध था । प्रार्थना भी सभी के कल्याण की थी । जीवन की क्षणभंगुरता अपने ,और बगल वाले घर से होकर मन तक पहुँच गई थी । फिर समय बदला , और प्रार्थनाएं भी पहले जैसी ही हो गईं । वो अवसर छूट गया ।

आजकल एक और प्रथा चली है , manifestation की ।  प्राकट्य  का व्यापार ही चल पड़ा है । जो चाहो मांगते रहो , और मानते रहो की मिल ही गया है । इस पद्यति में यह फायदा है कि इससे देने वाले का बोझ भी कम हो जाएगा ।

तो प्रार्थना कौन सी उत्तम है ? जो खेल से मुक्ति से संबंधित हो । तुमसे पहले भी इतनों ने मांगा । उनको मिला , लेकिन हाथ अंततः खाली ही रहे । देने वाले का खेल ही चल पा रहा है क्योंकि मांगें वही पुरानी हैं ,कोई surprise element या नवीनता नहीं है । नचिकेता नहीं manifest हो रहे आजकल ।

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