Categories
HINDI Perspectives

पलायन

एक बार एक व्यक्ति का संसार से मन ऊब गया । उसको लगा भौतिक आपाधापी उसके लिए नहीं है । उसने घर नगर छोड़ दिया, और किसी शांत जगह जाकर बस गया । धीरे धीरे उसको “ज्ञान” की प्राप्ति हुई और उसको लगने लगा  कि बिना बांटे कुछ भी प्राप्त करने का क्या अर्थ ? तब उसने एक आश्रम स्थापित किया और विभिन्न विषयों पर ज्ञान बांटना शुरू किया । उसके प्रयासों से एक पंथ का निर्माण हुआ और उसकी प्रसिद्धि जगह जगह फैलने लगी। धीरे धीरे उसको एक चिंता सताने लगी । उसके जाने के बाद उसके आश्रम और संपत्ति का क्या होगा ? उसने एक उत्तम उत्तराधिकारी की तलाश शुरू की। बिना इसके उसकी सालों की अर्जित की हुई विरासत के नष्ट हो जाने का खतरा था । उसके पास तरह तरह के प्रलोभन और प्रस्ताव आने लगे। नींद तो उसकी जा ही चुकी थी । एक दिन रात में उसको यह विचार आया कि क्या होते होते क्या हो गया । वह सोचने लगा । “मेरी आत्मज्ञान की यात्रा कैसे रत्न जड़ित आध्यात्मिक प्रासाद में विलीन हो गई । जितनी कुटिलता एक सादा गृहस्थ जीवन जीने में भी न उपयोग होती उससे कहीं अधिक तो मैंने इस आध्यात्मिक पथ पर लगा दी ।” लेकिन पीछे जाना अब उसके लिए संभव नहीं था । एक सन्यासी की आम जीवन में पुनः वापसी पर कितनी भर्त्सना होगी ? उसकी वर्षों की अर्जित की हुई देवतुल्यता का ह्रास हो जाएगा । अनुयायियों का क्या होगा ? जिस जगत को मिथ्या समझकर उसने सन्यास ग्रहण किया था , अब वही जगत उसके आध्यात्मिक पथ को मिथ्या बताएगा । परमात्मा क्या , वह तो स्वयं से भी बहुत दूर हो चुका था । उसको बात समझ में आ गई । पीछे तो लेकिन वो जा नहीं सकता था ? और गया भी नहीं।

गृहस्थ हो या सन्यासी , ऐसा कौन है , ऐसा क्या है जो अस्तित्व के नियमों के अधीन नहीं है ?

अपने सत्य से कौन यहाँ भाग सका है ?

जितनी भौतिकता किसी शहर में ईंट पत्थर के बने मकान में है उतनी ही किसी दुर्गम पहाड़ी पर बने आश्रम में भी है। तत्त्व एक ही है। इसी प्रकृति से युक्त है।

मनुष्य उसका त्याग कर सकता है जिसका स्रोत वह स्वयं हो । जो अपना है ही नहीं उसका त्याग करना बस ढोंग है। प्राणों का प्रवाह , शरीर की आंतरिक गतिविधियां , अस्तित्व के नियम इत्यादि , मनुष्य की आज्ञा पर निर्भर नहीं हैं । कुछ है जो हमेशा से है , उसी ने मनुष्य को जन्म दिया है । जब अपने उद्गम का ही ज्ञान नहीं , जब अंत का कुछ पता नहीं , तब प्रथम से अंतिम श्वास के मध्य त्याग का खेल करना बस अपने अहं को पोषण देना है । जिसको अधिकांशतः आध्यात्मिक पथ समझा जाता है , पलायन उसका मुख्य बिन्दु है । जीवन के सत्य को जो देख लेता है उसके लिए भीड़ भाड़ वाले बाज़ार और एकांत में बने आश्रम में कोई भेद नहीं होता है । जो सम हो गया वही सन्यासी है । उसके अंदर परिस्थितियों के प्रति , सुख दुख समेत समस्त द्वैत के प्रति समता और स्वीकार्यता है । उसको पता है कि इधर से उधर भागना अस्थायी शांति ही देगा । वह जानता है कि भीतर और बाहर की किसी भी दौड़ में अपने केंद्र में निरंतर स्थित रहना ही सन्यास है , यही धार्मिकता है , यही बोध है ।

कबीरदास कहते हैं – “माया छाया एक सी, बिरला जाने कोय । भागता के पीछे लगे, सम्मुख भागे सोय ” ॥

Categories
HINDI Perspectives

सब नश्वर है इसलिए मुस्कुराओ

नश्वरता का बोध होना कोई नकारात्मक बात नहीं है। इसी बोध से बुद्ध जन्म लेते हैं । इसी बोध में मुक्ति है। मुक्ति नहीं भी हो तो भी मार्ग यहीं से मिलता है। स्वयं को अस्तित्व का केंद्र समझ लेना फिर भी मूर्खता है।  भीतर यह बात बैठ जाये कि जो है वो तभी तक है जब तक मैं हूँ। मेरे कष्ट , सुःख , दुःख , धर्म , जाति इत्यादि विभाजन , मान्यताएं , प्रथाएं , विचारधाराएँ  मेरे न होने पर मेरे लिए अर्थहीन हो जाएंगे। जिन्होंने मेरे मन में इतने अर्थ भर दिए वे भी या तो अर्थहीन हो चुके हैं या हो जाएंगे।

अस्थायी से मन उचटने के बाद जीवन रूपांतरित होगा। बंधन स्पष्ट  होंगे। ऊर्जा सृजनात्मक होगी। विवेक संसार द्वारा अनिवार्य माने जानी वाली बातों को नकारना आरम्भ करेगा। छोटे छोटे झगड़े-बहस , अखबारों की बातें , प्रतिस्पर्धा में लगे लोग , सभ्यताओं के टकराव इत्यादि कोई अर्थ नहीं रखेंगे। रखेंगे भी तो एक खेल के खंड के रूप में।

महत्त्व बस एक बात का बचेगा। अपनी चेतना का।  वही सबसे निकट , शाश्वत और शुद्ध प्रतीत होती है। सब बदलता रहा लेकिन यह नहीं बदली।  जो इस चेतना की शुद्धता को अवरुद्ध करेगा , वह छंट कर अलग हो जाएगा। अब जो कर्म  होंगे , इसी के लिए और इसी से होंगे। अब त्याग और भोग का द्वन्द नहीं है। यही यात्रा है , यहीं मुक्ति है। कल हो न हो का प्रश्न नहीं है , पता है कि अगले क्षण भी ऐसा कुछ होगा जो अभी नहीं है।

नश्वरता के बोध से किसी की प्रगति नहीं रुकती है , बस प्रगति का अर्थ स्पष्ट होता है। बोध कभी भी भीड़ को नहीं होता है , व्यक्ति को होता है । सत्य के साथ जीना ही सकारात्मकता है ।

Categories
HINDI Perspectives

वर मांगो

“वत्स , वर मांगो । जो चाहो मांग लो ।”

” ठीक है प्रभु , इतने वर्षों से मांग ही रहे हैं , फिर मांग लेते हैं । कुछ रह जाएगा तो अगली बार ।”

मांगने में कोई समस्या नहीं है । जो है , उसे इच्छा भी होगी । कोई इच्छित वस्तु की प्राप्ति के लिए कर्म करेगा , कोई प्रार्थना , कोई दोनों करेगा । लेकिन ये प्रार्थना कैसी हो ? मांगने वाला कैसा हो ?

वर देने वाले को भी पता है कि मांगने वाले का क्षेत्र सीमित है । इसीलिए वो खुल के देता है । अहं के केंद्र से संचालित व्यक्ति क्या मांगेगा ? धन , समृद्धि , परिवार, स्वास्थ्य , आयु , संतान , शक्ति , प्रसिद्धि , बस , यही सब । वही पुराना । बात बस इन्ही सब में घूमकर खत्म हो जाती है । धर्म , देश , काल कोई भी हो – मांग एक जैसी ही होती है । कम से कम इस आधार पर विश्व बंधुत्व के सिद्धांत की पुष्टि हो जाती है । सब एक हैं । क्योंकि सबके मन भी एक ही हैं । बाहरी विभाजन बस दिखावा हैं , भीतरी मांगें सभी की एक जैसी ही हैं ।

आम इच्छाओं की यही समस्या है कि वो मन को अस्थाई में घुमाती रहती हैं । इच्छाएं तो असीमित हैं लेकिन असीम की नहीं हैं । वही चक्र है । कभी कभी किसी नचिकेता जैसे की कथा आ जाती है । नचिकेता कुछ नया मांग लेता है । यमराज उसको संसार में उपलब्ध उच्चतम से उच्चतम प्रलोभन देता है लेकिन नचिकेता खेल समझ चुका होता है । उसको शाश्वत में रुचि है । ऐसे ही ययाति भी अंततः भोग भोगकर थक जाता है , उसी चक्र में अमर्त्य होने की निरर्थकता वो समझ जाता है । याज्ञवल्क्य भी कात्यायनी और मैत्रेयी में अपनी संपत्ति बांटकर जाना चाहते हैं लेकिन मैत्रेयी भी खेल समझ चुकी हैं , उनको भी अल्पकालिक में रुचि नहीं है । वे याज्ञवल्क्य से पूछती हैं कि क्या यह सब पाकर मुझे अमरता प्राप्त हो जाएगी ? यदि नहीं तो इस सब का क्या औचित्य ? तो किस बात की प्रार्थना की जाए ?

जब मनुष्य ने अपने आप को विभिन्न इच्छाओं में विभाजित न किया हो तो तब उसकी ऊर्जा बचे । तब प्रार्थना में शक्ति हो । जब इच्छा ही सत्य को समर्पित हो तब कुछ घटे , क्योंकि तब ही अहं विलीन होगा । किसको पता है कि उसके लिए क्या श्रेष्ठ  है ? किसको यहाँ अस्तित्व के नियमों की समझ है ? जब अंतर्दृष्टि ही अहं से प्राच्छादित है तो इच्छा कैसे सही होगी ? जब मांगने वाला ही अज्ञान के केंद्र से संचालित है तब मांगते रहने का क्या अर्थ है ? प्रार्थना तब ही सार्थक है जब मांगने वाला जागृत अवस्था में हो । और मांगने वालों ने परमात्मा से भी बड़ा व्यापारिक संबंध रखा है । परमात्मा का अर्थ ही तब है यदि वह कुछ दे सकता हो । उसे तरह तरह के प्रलोभन दिए जाएंगे जिससे उसके निर्णय मनवांछित हों । मनुष्य ने ईश्वर को अपनी छवि में निर्मित कर दिया है । यहाँ प्रेम का कोई स्थान नहीं है । जो मिल गया उसके लिए कृतज्ञता नहीं है ।

जो ऊंचाई से आकृष्ट नहीं वो क्यों उड़ना चाहेगा ? जिसे अज्ञान ही अर्थपूर्ण लगे वो क्यों मुक्त होना चाहेगा ? जब अस्थायी की ही मांग है , तो शांति कैसे शाश्वत होगी ? ऐसे ही थोड़ी बार बार महिषासुर देवताओं को पराजित करते रहते हैं । जब मन पुराना है , मांग पुरानी है , तो परिणाम भी पुराने होंगे । कोरोना की समस्या वैश्विक थी । उस समय एकत्व था । उस समय परस्पर निर्भरता का बोध था । प्रार्थना भी सभी के कल्याण की थी । जीवन की क्षणभंगुरता अपने ,और बगल वाले घर से होकर मन तक पहुँच गई थी । फिर समय बदला , और प्रार्थनाएं भी पहले जैसी ही हो गईं । वो अवसर छूट गया ।

आजकल एक और प्रथा चली है , manifestation की ।  प्राकट्य  का व्यापार ही चल पड़ा है । जो चाहो मांगते रहो , और मानते रहो की मिल ही गया है । इस पद्यति में यह फायदा है कि इससे देने वाले का बोझ भी कम हो जाएगा ।

तो प्रार्थना कौन सी उत्तम है ? जो खेल से मुक्ति से संबंधित हो । तुमसे पहले भी इतनों ने मांगा । उनको मिला , लेकिन हाथ अंततः खाली ही रहे । देने वाले का खेल ही चल पा रहा है क्योंकि मांगें वही पुरानी हैं ,कोई surprise element या नवीनता नहीं है । नचिकेता नहीं manifest हो रहे आजकल ।

Categories
HINDI Perspectives

अंतर्मुखी

जो कुछ जैसा है , जो जैसा है वैसा देखना कठिन है । कठिन है क्योंकि जो जैसा है ,वैसा यदि देख लिया तो मैं कैसा हूँ वह भी दिख जाएगा। जो कुछ जैसा है वैसा ही देख लिया तो मन में पड़ी मान्यताओं , स्मृतियों और भ्रांतियों का क्या होगा ?

समाज बिना द्वैत के नहीं चल सकता। व्यक्तियों को अलग-अलग समूह में विभक्त किए बिना “सामाजिक समझ ” का कोई अस्तित्व नहीं रहेगा। हमने लोगों के व्यक्तित्व को कुछ समूहों में बांट दिया । जो लोग अपनी बात कुछ कम कहते हैं , थोड़ा कम अभिव्यक्त करते हैं ,उन्हें हम कह गए अंतर्मुखी। दूसरे वालों को बहिर्मुखी या उभयमुखी कह दिया। परिभाषाएं बनती बिगड़ती रहीं।
दृष्टि अंदर हो या बाहर, दर्शन बाह्य हो या आंतरिक ,दृश्य का मूल्य दृष्टा पर ही निर्भर करता है।
ऐसे कौन से तत्व हैं जो किसी व्यक्ति को सामाजिक रुप से अंतर्मुखी बनाते हैं ? क्या व्यक्तित्व भी एक अवधारणा है , एक विचार है, एक परिभाषा मात्र है ?
जिसे सागर की प्यास है वह तालाब में क्या पाएगा ?
जिसे पक्षियों का संगीत पसंद है वह मनुष्यों के कृत्रिम शोर में क्यों सहज होगा ?
जहां योग्य श्रोता ही न हो वहां कोई क्यों कविता सुनाएगा ?
हंस कौवों के झुंड में क्या करेगा ?
जिसे ज्ञान की ज्योति ही रसपूर्ण लगे वह अज्ञान के तमस में क्यों रमेगा ?
भेद द्रष्टा का है , दृश्य वही है।
जो तुम देख सकते हो , जब वही दूसरा देख पाता है तो वह तुम्हारा मित्र हो जाता है। एक जैसी दृष्टि की बात है बस। कोई बालक है ,उसकी कुछ प्रवृत्तियां हैं ,विचार हैं ,अपनी अभिव्यक्ति है। उसके परिवार /मित्र किसी और तल पर हैं। अब यह बालक मन के तल पर अल्पसंख्यक हो गया। अब वह समाज के द्वारा अंतर्मुखी कहलाया जाएगा।
यही बालक जब कभी ऐसी परिस्थिति पाएगा जहां उसकी सहजता के प्रवाह को किसी बाँध ने न नियंत्रित किया हो , तो वो फूट पड़ेगा। उसकी अभिव्यक्ति का बीज अंकुरित हो उठेगा । यह स्थिति किसी भी तरह बन सकती है। गुरु के सानिध्य में , मनुष्य ,पशु /पक्षी , या प्रकृति के प्रेम में , या मौन/ध्यान की अवस्था में। जो बंद है ,उसके बाहर आने का द्वार चाहिए बस । अंतर्मुखी बहिर्मुखी बन जाता है। सभी भेद समाप्त हो जाते हैं।
समाज भी हतप्रभ हो जाता है। ऐसे कवि, विचारक, संत या महापुरुष प्रकट हो जाते हैं जो कुछ समय तक अज्ञात थे। बीज एकाएक वृक्ष का रूप ले लेता है। बीज को अपना सही स्वरूप पाने की परिस्थितियाँ मिल जाती हैं। संभावनाएं हमेशा से थी, बस अब बाँध टूट गया है। नदी समुद्र से मिल गई है। यही हाल मनुष्य की संभावनाओं का भी है। ऐसी संभावनाएं जो अमूर्त और अव्यक्त रूप से उसके भीतर हैं।
सत्संग में शब्दों से भी संवाद होता है और मौन में भी। कवि जो सदा से कहना चाह रहा था एकाएक बर्फ से ढकी चोटी के समक्ष कह देता है। पक्षियों की चहचहाहट के मध्य अभिव्यक्त कर देता है। सामाजिक तल पर जैसे ही अंतर्मुखी व्यक्ति सही स्थितियाँ पाता है तो उसका व्यक्तित्व असामाजिक से सामाजिक प्रतीत होने लगता है। इसी कारण से से देखने वालों को उभयमुखी व्यक्तित्व को परिभाषित करना पड़ा।
मदिरा के सानिध्य में भी में भी व्यक्ति का आचरण और व्यक्तित्व एकाएक बहिर्मुखी हो जाता है। यह कोई आदर्श स्थिति नहीं है लेकिन यह प्रश्न है कि क्यों वह व्यक्ति मदिरा के संरक्षण के बिना अपने अवचेतन को सतह पर आने नहीं देता , और मदिरामय होकर एकाएक उपदेशक बन जाता है ?
क्या वजह है कि कोई व्यक्ति जो कुछ कह सकता था, कहना चाह रहा था, उसको कोई सुन नहीं रहा था ?

क्या कारण है कि अधिकांश व्यक्ति समाज द्वारा बनाये गए व्यक्तित्वों के ढाँचे के कारण अपनी आदर्श स्थितियां पा ही नहीं पाते ? वृक्ष बन ही नहीं पाते ?
सामान्य व्यक्ति के लिए मीरा अंतर्मुखी हैं। वह अपने प्रभु के प्रेम में लीन हैं। उनके लिए बाहरी जगत के प्रपंच अरुचिकर हैं। जैसे ही उनका भक्ति रस शब्दों का रूप लेता है और भजन लोगों के कान में पड़ते हैं, वही अंतर्मुखी व्यक्ति लोकलाज की चिंता न करते हुए प्रेम कि अभिव्यक्ति करता हुआ प्रकाश पुंज दिखने लगता है।
बस द्रष्टा का भेद है। बीज वही है। स्थितियों का भेद है।

Categories
HINDI Perspectives

नववर्ष

वही पुराना व्यक्ति जब नए में प्रवेश करेगा तब कुछ नया कैसे हो पाएगा ? जब पुराने और नए की परिभाषा भी इसी व्यक्ति ने लिखी हो तब तो नया कुछ हो ही नहीं सकता।

कोई भी वर्ष तब तक नया लगता है जब तक दूसरा याद दिलाता रहे। बाहर से चिल्लाता रहे कि समय बदल गया है। जो नहीं हुआ अब होने का समय आ गया है। नया सामान खरीदने का , नए तरीके से उपभोग करने का , जो चाहो उसे पा लेने का , एक अच्छे जीवन की तरफ एक और पग बढ़ा देने का। लेकिन यह नयापन इतनी जल्दी बासी क्यों हो जाता है ? नववर्ष के दस दिन बीतते ही सब पुराना क्यों लगने लगता है ? क्योंकि समय परिवर्तित हुआ है यह किसी ने बाहर से बताया है। प्रसन्न होने का क्षण है यह भी कोई बाहर से समझा रहा है। वह बाहर वाला तो यह भी कह रहा है कि प्रसन्न होने पर क्या क्या किया जा सकता है वो भी तुम्हें वह ही बताएगा। उसको यह भी पता है कि तुम बस कुछ समय के लिए ही नए का स्वाद लेना चाहते हो। उसे पता है कि नया क्या है यह तुमको पता ही नहीं है। इसीलिए थोड़े शोरगुल के बाद वह भी शांत हो जाएगा और तुमको किसी और नए की प्रतीक्षा में लगा देगा। उसको पता है कि इस नए के अतिरिक्त कुछ और भी नया हो सकता है , ऐसा तुमको बोध ही नहीं है। उसे भी नहीं है।


मनुष्य कृत्रिम समय पर चलता है। आपस में ही निर्णय करके एक दूसरे को बधाई दे देता है और प्रसन्न होने के अवसर तय कर लेता है। उसकी पूरी दृष्टि ही बाहर है। पशु पक्षियों के साथ ऐसा नहीं है। उनके भीतर अस्तित्व ने कुछ बिठा दिया है , जिससे वो हर क्षण को नयी दृष्टि से देखते हैं। उनके लिए हर क्षण ही नया है , दिन और वर्ष का तो कोई अस्तित्व ही नहीं। किसी पक्षी कि दिनचर्या से जीवन में जो भी सीखने योग्य है सीखा जा सकता है। उनकी चहचहाहट में जो उल्लास होता है वही मनुष्यों को नयेपन का अनुभव करा देता है। उनका संन्यास नैसर्गिक है। आवश्यकता से अधिक संग्रह न करना , कल की चिंता न करना , एक एक क्षण का उपयोग करना और जीवन से भरपूर रहना। मनुष्य तो जब नये का उत्सव मनाता भी है तो वह उस क्षण का , उस अस्तित्व का , उस जीवन का उत्सव नहीं होता , अपितु वह एक उम्मीद का उत्सव होता है। एक आशा है कि आने वाला समय कुछ ऐसा लाएगा जो आज तक नहीं मिला , इसलिए आज प्रसन्न हो लो। यह उत्सव भी अकारण नहीं है , सशर्त है। नया वर्ष आ रहा है तो कुछ देके जाए , तभी उसका आना सार्थक है। इसी उम्मीद का आज उत्सव मना लें। और क्योंकि भविष्य कभी आता नहीं , इसलिए वो परिपूर्ण आनंद का क्षण भी आता नहीं। पशु पक्षी , संपूर्ण अस्तित्व यही दिखाता रहता है कि नया है तो अभी है। जो आएगा वो तो विचारों ने कब का पुराना कर दिया। मनुष्य तो वही है।

समय का चक्र तो उसी मन पर है जो भूत और भविष्य ,महत्वाकांक्षाओं , विचारधाराओं , इच्छाओं , विवशताओं और अधूरेपन से बना है। नया तभी होगा जब मनुष्य का पुनर्जागरण होगा। जागरण तभी होगा जब यह सब बोझ हटेगा। तब भीतर उस सरलता और उल्लास का उदय होगा जो प्रतिदिन सूर्य के आने पर संपूर्ण प्रकृति में होता है।

Categories
HINDI Perspectives

एकला चलो

कभी कहीं अकेले निकल जाओ। अकेले मतलब अपनी पहचान को अपने घर छोड़कर बस  निकल जाओ। वहां पहुंचो  जहां कोई तुमको  जानता नहीं। तुम कहां से हो, कब से हो, किस विचारधारा से बंधे  हो ,और किन बोझों से गिरे हो ,सब  पीछे छोड़ दो।

अकेले यात्रा करने का अपना आनंद है, स्वयं को भूलने की संभावना अधिक है। अपने कीमती सामान , कृत्रिम और सुरक्षित सामाजिक घेरे  से दूर किसी ऐसे स्थान पर पहुंचो जहां कोई सुरक्षा न हो।  सब कुछ सेवा में उपस्थित न हो। कहाँ रहेंगे क्या खाएंगे इस सबकी  कोई पूर्व निर्धारित  योजना न हो।  जहाँ चित्त में बैठे हुए बंधनों का कोई औचित्य न हो। अगर परिवार/ मित्रों या सामाजिक घेरे के साथ जाओगे  तो मंच के  सभी पात्र क्या पूरा का पूरा मंच ही उठ कर दूसरी जगह पहुंच जाएगा और नयी जगह वही पुराना नाटक  ही होगा ।

वैसे तुम भी पुराने ही हो।  वही  मन भी तुम लेकर ही जा रहे हो लेकिन फिर भी इस बार कुछ नया होने की संभावना रहेगी। यह एकांत कुछ पश्न करेगा।   बस पहुंच गए और कोई तैयारी नहीं। अस्तित्व के सामने प्रस्तुत ।  सब कुछ परमात्मा के हाथ में। वैसे भी था ही ,अब अपने आप को थोड़ा खुला छोड़ के भी देख लो । देख लो कि कुछ न भी किया जाए तब क्या होता है। स्वतः। अब इस यात्रा में जो भी अनुभव होंगे नवीन होंगे। अब देख लो कि तुम्हारा कौन सा रूप तुम्हारा है ? देख लो कि अपनी सामाजिक पहचान के आवरण के अभाव में तुम कितने स्वीकार्य हो? जहां गए हो वहां के लोग तुमको कैसा पाते हैं ? क्या तुम अपनी पहचान के बंधन के  बिना सांस ले पा रहे हो ? क्या जो भूखा कुत्ता तुम्हारे पीछे पीछे दरबारी की तरह चल रहा है तुम उसको पुचकार पाने की हिम्मत जुटा पा रहे हो ? यहाँ कोई नहीं देख रहा , यहाँ तुम अपनी करुणा को बहने दे सकते हो।  जब तुम उस सड़क के किनारे बैठकर उन अनजान लोगों के साथ आग का ताप ले रहे हो तब क्या तुम कुछ अधिक जीवित हो ?  उस दिन जब पहाड़ों के बीच से जो नया  सूर्योदय हो रहा है , उसकी किरणें किसको स्पर्श कर रही हैं ? क्या तुम्हारी सामाजिक पहचान को ? क्या यह हवा अलग है या तुम ही आज अलग हो ? क्या इन पत्तों का नृत्य आज अलग है या तुम आज ही देख पा रहे हो ? नहीं ,बस तुम जीवन को आज सजीव देख पा रहे हो।  यह अस्तित्व का नृत्य एकांत की तुमको भेंट है।

वापस जाते समय याद करो कि कितने अनजान लोगों ने निस्वार्थ भाव से तुमको फिर वापस आने को कहा ? कितनी बार तुमको अपनी पहचान और उसी मंच पर भाग जाने की उत्कंठा हुई ? क्या ये  नाटक तुमसे हो पाया , कि वही पुराना रटा रटाया वाला चलेगा ?  यदि प्रश्न भी उठे तो यात्रा सफल है। प्रश्न ही महत्वपूर्ण है। जिसने कहा उसको उत्तर मिल गए वह स्वयं को भ्रमित कर रहा है।

 एकांत की यात्रा ही महत्वपूर्ण है। कभी-कभी ही सही । जब तुम वापस जाओगे तो देखोगे कि नाटक वैसे का वैसा ही चल रहा है। तुम वापस न भी आते तो चलता ही रहता।  कभी रुका ही नहीं।  बस तुमको लगा कि तुमने शुरू किया। यहां भीड़ की कमी नहीं है। वही पागल दौड़ जारी है। अब फिर से दौड़ लो। लेकिन अलग जाना महत्वपूर्ण था। अपनी विक्षिप्तता का बोध भी उस परिचित परिधि के बाहर जाकर ही होगा । जहाँ सब भ्रमित हैं वहाँ तुम सबके जैसे ही रहे तभी सामान्य समझे जाओगे , लेकिन हैं तो सब भ्रमित ही। यह बोध ही पर्याप्त है।  यही यात्रा का उद्देश्य भी था। कोई और अवस्था और संभावना भी हो सकती है ,यह समझना ही ध्येय था।

अलग जाकर , दूसरे तल पर जाकर ही नए की संभावना जगती है। जब संभावना जाग जाये , तब भीड़ से भागने की भी आवश्यकता नहीं।  तब स्वयं का मन भी शत्रु नहीं। तब भीड़ में भी एकांत मिलेगा। एकांत में ही आनंद मिलेगा। कभी कभी अकेले निकलना चाहिए। और एक दिन यह अनुभूति होगी कि अकेले ही निकले हो  ।

Categories
Perspectives

Just A Number

Is Age just a number? Ask Yayati. In the story, King Yayati -after completing hundred years of life, after achieving everything material possible, was still reluctant to go with Death when it came. He instead offered death a deal. Death was given the option of taking away any of Yayati’s sons instead, in lieu of a hundred more years of life. All but one refused. The youngest one, aged seventeen, wondered – ” my father has completed a century. Some of my brothers are in their eighties. Still, they refuse to leave. Surely, there isn’t anything worth waiting for here. I better go with Death and go gracefully.”

In the story, the trend of sacrifice continued till Yayati reached a thousand. Just a number. And finally got convinced that one can’t ever be satisfied enough to voluntarily leave this body. He decided to relent.

So why do you fear aging? Because a realization dawns on every birthday that nothing of worth has been accomplished all these years. More needs to be seen, done, and experienced. Silently, something deep keeps calling though. You try to listen to it but what happens? The mind starts convincing you that there is time. So much can be consumed. Age is just a number. The calling can wait. Who calls and hides like this? So much is there to be achieved in this life, be realistic. Chase your dreams. Life is made up of dreams anyway.

What convinces you that someday something extraordinary will happen and the coming years will be different? If the need for change isn’t being felt now what will change in the future? If the temporary is the most attractive now, how can it suddenly appear meaningless when the time to go arrives? By repeating that age is just a number – can you repeat a Yayati?

Those who have been driven by that higher intelligence, have never been bound by the concept of time. For them, age never actually mattered. Swami Vivekananda, who left before forty, didn’t need a hundred years to fulfill the role assigned. He accomplished what many individuals combined can’t dream of in a lifetime spanning a hundred. Goswami Tulsidas, was more than eighty when he started composing Ramcharitmanas. Are there any better-known poetic masterpieces of devotion and wisdom? Only a higher purpose makes age redundant, nothing else can.

When you are driven by that higher purpose, something that is outside of your ego world, you live beyond the domain of cause and effect. And what is time, but the gap between a cause and an effect? Age is irrelevant when you enter the timeless. And that timeless is now, this moment – when life is actually happening. The body ages with time. The truth is timeless. Physical aging can be delayed but can’t be denied. By playing the same game, again and again, one loses the opportunities of rebirth before death.

The storm of desires will never subside. The mind, conditioned and ruled by memories and instincts – will portray a grand scene of incompleteness. You will try and catch hold of everything you can, but no effort will be enough. When you realize that there is nowhere to reach, the running stops. Age becomes just a number then. Eternity becomes a reality.

Categories
HINDI Perspectives

बताऊँ मैं कौन हूँ?

वेदांत में सत्य का अन्वेषण नेति नेति के सिद्धांत पर आधारित है। जो सबसे सूक्ष्म है वह सामान्य बुद्धि या इन्द्रियबोध से परे है। जब तक भ्रम रुपी बादल चित्त पर मंडराते रहेंगे सत्य छिपा ही रहेगा। इसलिए विश्लेषणात्मक तर्क और सहज बोध के द्वारा धीरे धीरे जो जो भी सत्य नहीं है उसको बारी बारी से हटाया जाता है।
इसी तरह जब यह प्रश्न आता है कि “मैं कौन हूँ ” तब भी आरम्भ इससे होता है कि मैं क्या क्या नहीं हो सकता ( “मैं शरीर नहीं हूँ” ,इत्यादि)। उपनिषदों में इस तरह के आत्म निरीक्षण के कई उदाहरण हैं। जब परतें खुलती जाती हैं तब साधक को धीरे धीरे अपने अस्तित्व की विराटता का अनुभव होने लगता है। फिर भी एक जीवनकाल में ईश्वरीय अनुग्रह के बिना सामान्य प्रयास के सहारे अपना सही स्वरुप जानना अत्यंत कठिन है। यदि “मैं कौन हूँ ” यह पता चल गया तब कोई और प्रश्न रहता ही नहीं।


इसके विपरीत प्रकृति द्वारा संचालित संसार में “मैं कौन हूँ ? ” , इसका उत्तर जानने वालों की कमी नहीं है। अपनी अपनी सुविधा और अहम् की आवश्यकता के हिसाब से व्यक्ति अपनी पहचान बताएगा। कोई अपने आप को अपने धर्म ,भाषा या विचारधारा से परिभाषित करेगा ,और किसी की पहचान उसकी उपलब्धि या व्यवसाय से होगी। सब अपने आप को इतने अच्छे से जानते हैं कि संसार के सागर में बहुत से सत्य तैर रहे हैं। वह आपस में टकराते रहते हैं और चक्र चलता रहता है।

प्रकृति का स्वरुप ही विभाजन और द्वैत पर निर्भर है। एकत्व का अनुभव माया के अस्तित्व के लिए ख़तरा है। अगर अधिकाँश व्यक्ति यह समझ जाएं कि मैं क्या नहीं हूँ , यह देख लें कि धर्म , विचारधारा , या जातीयता के आगे भी कुछ है , तब किसी प्रकार के घर्षण की संभावना ही कहाँ बचेगी ? यदि सब एक ही है तो स्वयं ही स्वयं से कैसे टकराएगा ? “अपनी सामाजिक या व्यक्तिगत पहचान के परे मैं क्या हूँ ? ” , यह एक पश्न ही जो जो भी अर्जित किया गया है उसको नष्ट कर देगा , इसलिए इसके पूछे जाने की संभावना ही बहुत कम है ।


फिर भी , सांसारिक दृष्टिकोण से भी , ” मैं इन सबमें से कुछ भी नहीं हूँ” ज्यादा विवेकपूर्ण विकल्प लगता है। जो यहाँ अपने आप को जानने का दम्भ भरते हैं उनका हाल भी तो प्रत्यक्ष ही है। ऐसे लोग ट्रैफिक सिग्नल पर चालान से बचने के लिए अपना परिचय देते ही रहते हैं। नेति नेति ही ठीक है।अज्ञान के बोध में संभावनाएं तो छुपी हैं ।

Categories
Perspectives

All Rights Reserved

Can the birds claim copyrights over their compositions?

Can the mountains claim credits for their magnificence?

Or, do the Northern Lights bother charging the audience for the show they put on?

Do the elements of existence, barring humans, even care about their uniqueness getting noticed?

The question of obtaining “rights” arises only when one assumes the role of a creator/originator of any idea/work or process. However, little does one bother to go behind the source of these “original” pieces of creation.

Stimulation of the senses and application of accumulated information is essential to set the process of creation in motion. When a poet is struck by the scenery of the clouds merging into the hills, his emotions get ignited and he comes up with a passionate formulation of words. Where is the database of these words and emotions? The first trigger is the stimulation of the senses. Next comes application on the basis of accumulated information. Those metaphors and analogies are supplied through the interconnections between the scene recorded, and the area of activation of the mind. Memory is set into action and the process of creation starts. When action precedes thoughts, the process is at its most efficient and one gets into “the flow”.

Every single idea, concept, or thought is drawn from the ever-existing database of the mind. If one looks closely, what is unique or original here? Has credit been given to those hills, flowers, sounds, and waterfalls for how they are? Have they been acknowledged for triggering that area of awareness in one’s subconscious mind? Where is the originality here, other than the jugglery of mental concepts? Aren’t humans just the product of their conditioning? Isn’t every mind composed of a similar background?

Who is supplying this raw material to all minds? Don’t we make the mistake of treating our mental content as unique, which in fact remains the same for everyone if variations of time, place, and context are catered to? Isn’t there this Universal Mind which is the source and the supplier of all that we play with? Aren’t the stories in one part of the world strikingly similar to the other if we just account for the contextual variations? Aren’t the primitive expressions of emotions the same across regions? Aren’t the questions in front of Man the same for ages? The Source is the same, how can anything new come up then?

This Universal Mind allows its content to be played with, used, and utilized. Whatever has been said, thought, done, felt, or produced will trace its origin to a common source. The same goes for the future. The context will always create a facade of uniqueness though and that is how illusions work.

Let us stop at the invocation of the Isa Upanishad :-

ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते ।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥

“That is full, this is full,
From that fullness comes this fullness,
If you take away this fullness from that fullness,
Only fullness remains”

What is present in that whole is present here too. Whatever is present here has been derived from that whole. That source. Which is ever full. The Sun of that universal mind illuminates the candles of all worldly minds. The same white light of reality is being reused by all of us . Nothing else,or “new” exists.

What propels creativity? Connecting with the Source of sources leads to those real and unique works. This process is beyond normal learning. All the greatness and beauty that has been unearthed to date is due to that direct connection, which just got established in those moments of mindfulness, when the intervening levels got short-circuited, leading one to the ultimate source.

No one can take away any credit from those individuals involved in the “wow” process – those ideas, works, and creations have made the world liveable and beautiful. At the same time , that white light which gets dispersed into various colors and allows us to play with different aspects of it – that too deserves salutations.

Copyrights are a necessity in a “short of time” world where people look to grab ideas from the intervening levels rather than opening up themselves and getting connected with the Universal Mind. However, the next time the musician, painter, photographer, or poet in you gets moved by appreciation, remember to be grateful to the elements of nature, your five senses, and the Universal Mind for helping you manifest a product from the ever-existing raw material. You are composed of that fullness which never hesitates in sharing its fullness. You too are full. Share your fullness and feel the abundance of being.

Categories
Perspectives

Settling Down?

When Gautam Buddha asked Angulimala, the notorious and ruthless brigand, “I have stopped, when will you?”, he was coaxing him to settle down in life. Angulimala, who had made a rosary out of the fingers of those he had murdered, got eventually transformed and gave up his fruitless quest. In a flash, Buddha, who had moved above the unsettling tendencies in life, made the murderer aware of the turbulence created by a deluded mind.

Unless your mind is settled, can you stop? If it is settled, what worldly event can unsettle you?

The only allowable phase where one can live an “unsettled” life is that of early childhood. Why? Because during that stage, a human being isn’t of much relevance for the society, its ideologies, boundaries, and the “must do-s”. Even this changes when “experts” are engaged to help condition those unalloyed humans into socially worthy and relevant individuals. The process of settlement begins there. If you look closely though, those early years were the only days when you were actually settled. That remains an irrelevant subject for the established society though.

Next, as a student, you were required to get trained well enough to eventually settle well in stable careers. In the hope of getting somewhere, you kept stopping at favorable coasts. Then came the big one. The settlement of marriage, that search for the settled one, which is generally expected to settle you forever. At least after this, you were deemed to be settled, and the tossing ship got anchored till the next storm. The world moved on to the next prey, to merge it into itself, to ensure that harmony.

As you started the process of getting your offspring settled, you waited for that fullness to arrive. That real settlement. Bang came senility, and you had the company of those locker keys, unsettled transactions, unfinished tussles, and journeys that could never be undertaken. What was that, which remained unfulfilled? Where was that shore of settlement?

The waves never settled. Just as one receded, the next arrived. Tide after tide, the hope of quietude kept pushing you. The world meanwhile, remained established in hope, or the illusion of it. Buddha had seen through this. Those great sights had reached beyond the mind. The message was – “find your own path, be a light unto yourself, go beyond the dualities of happiness and sorrow”. That was to be the real settlement.

I get reminded of another beautiful story. A sage was sitting on the outskirts of a village when a visitor asked him “which road will lead me to the settlements (बस्ती कहाँ है )? “. The sage pointed in a direction and the man left. After some time, he came back huffing and puffing and asked the sage angrily, “stupid man, why did you send me to the graveyard ? “. The wise man replied, ” I thought you were looking for settlements, so I guided you accordingly. In the other direction, you will find discordance and destruction ( बसते तो उधर हैं, इधर उजड़ते हैं )”.

Image: dailymirror.lk