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HINDI Perspectives

अंतर्मुखी

जो कुछ जैसा है , जो जैसा है वैसा देखना कठिन है । कठिन है क्योंकि जो जैसा है ,वैसा यदि देख लिया तो मैं कैसा हूँ वह भी दिख जाएगा। जो कुछ जैसा है वैसा ही देख लिया तो मन में पड़ी मान्यताओं , स्मृतियों और भ्रांतियों का क्या होगा ?

समाज बिना द्वैत के नहीं चल सकता। व्यक्तियों को अलग-अलग समूह में विभक्त किए बिना “सामाजिक समझ ” का कोई अस्तित्व नहीं रहेगा। हमने लोगों के व्यक्तित्व को कुछ समूहों में बांट दिया । जो लोग अपनी बात कुछ कम कहते हैं , थोड़ा कम अभिव्यक्त करते हैं ,उन्हें हम कह गए अंतर्मुखी। दूसरे वालों को बहिर्मुखी या उभयमुखी कह दिया। परिभाषाएं बनती बिगड़ती रहीं।
दृष्टि अंदर हो या बाहर, दर्शन बाह्य हो या आंतरिक ,दृश्य का मूल्य दृष्टा पर ही निर्भर करता है।
ऐसे कौन से तत्व हैं जो किसी व्यक्ति को सामाजिक रुप से अंतर्मुखी बनाते हैं ? क्या व्यक्तित्व भी एक अवधारणा है , एक विचार है, एक परिभाषा मात्र है ?
जिसे सागर की प्यास है वह तालाब में क्या पाएगा ?
जिसे पक्षियों का संगीत पसंद है वह मनुष्यों के कृत्रिम शोर में क्यों सहज होगा ?
जहां योग्य श्रोता ही न हो वहां कोई क्यों कविता सुनाएगा ?
हंस कौवों के झुंड में क्या करेगा ?
जिसे ज्ञान की ज्योति ही रसपूर्ण लगे वह अज्ञान के तमस में क्यों रमेगा ?
भेद द्रष्टा का है , दृश्य वही है।
जो तुम देख सकते हो , जब वही दूसरा देख पाता है तो वह तुम्हारा मित्र हो जाता है। एक जैसी दृष्टि की बात है बस। कोई बालक है ,उसकी कुछ प्रवृत्तियां हैं ,विचार हैं ,अपनी अभिव्यक्ति है। उसके परिवार /मित्र किसी और तल पर हैं। अब यह बालक मन के तल पर अल्पसंख्यक हो गया। अब वह समाज के द्वारा अंतर्मुखी कहलाया जाएगा।
यही बालक जब कभी ऐसी परिस्थिति पाएगा जहां उसकी सहजता के प्रवाह को किसी बाँध ने न नियंत्रित किया हो , तो वो फूट पड़ेगा। उसकी अभिव्यक्ति का बीज अंकुरित हो उठेगा । यह स्थिति किसी भी तरह बन सकती है। गुरु के सानिध्य में , मनुष्य ,पशु /पक्षी , या प्रकृति के प्रेम में , या मौन/ध्यान की अवस्था में। जो बंद है ,उसके बाहर आने का द्वार चाहिए बस । अंतर्मुखी बहिर्मुखी बन जाता है। सभी भेद समाप्त हो जाते हैं।
समाज भी हतप्रभ हो जाता है। ऐसे कवि, विचारक, संत या महापुरुष प्रकट हो जाते हैं जो कुछ समय तक अज्ञात थे। बीज एकाएक वृक्ष का रूप ले लेता है। बीज को अपना सही स्वरूप पाने की परिस्थितियाँ मिल जाती हैं। संभावनाएं हमेशा से थी, बस अब बाँध टूट गया है। नदी समुद्र से मिल गई है। यही हाल मनुष्य की संभावनाओं का भी है। ऐसी संभावनाएं जो अमूर्त और अव्यक्त रूप से उसके भीतर हैं।
सत्संग में शब्दों से भी संवाद होता है और मौन में भी। कवि जो सदा से कहना चाह रहा था एकाएक बर्फ से ढकी चोटी के समक्ष कह देता है। पक्षियों की चहचहाहट के मध्य अभिव्यक्त कर देता है। सामाजिक तल पर जैसे ही अंतर्मुखी व्यक्ति सही स्थितियाँ पाता है तो उसका व्यक्तित्व असामाजिक से सामाजिक प्रतीत होने लगता है। इसी कारण से से देखने वालों को उभयमुखी व्यक्तित्व को परिभाषित करना पड़ा।
मदिरा के सानिध्य में भी में भी व्यक्ति का आचरण और व्यक्तित्व एकाएक बहिर्मुखी हो जाता है। यह कोई आदर्श स्थिति नहीं है लेकिन यह प्रश्न है कि क्यों वह व्यक्ति मदिरा के संरक्षण के बिना अपने अवचेतन को सतह पर आने नहीं देता , और मदिरामय होकर एकाएक उपदेशक बन जाता है ?
क्या वजह है कि कोई व्यक्ति जो कुछ कह सकता था, कहना चाह रहा था, उसको कोई सुन नहीं रहा था ?

क्या कारण है कि अधिकांश व्यक्ति समाज द्वारा बनाये गए व्यक्तित्वों के ढाँचे के कारण अपनी आदर्श स्थितियां पा ही नहीं पाते ? वृक्ष बन ही नहीं पाते ?
सामान्य व्यक्ति के लिए मीरा अंतर्मुखी हैं। वह अपने प्रभु के प्रेम में लीन हैं। उनके लिए बाहरी जगत के प्रपंच अरुचिकर हैं। जैसे ही उनका भक्ति रस शब्दों का रूप लेता है और भजन लोगों के कान में पड़ते हैं, वही अंतर्मुखी व्यक्ति लोकलाज की चिंता न करते हुए प्रेम कि अभिव्यक्ति करता हुआ प्रकाश पुंज दिखने लगता है।
बस द्रष्टा का भेद है। बीज वही है। स्थितियों का भेद है।

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