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HINDI Perspectives

एकला चलो

कभी कहीं अकेले निकल जाओ। अकेले मतलब अपनी पहचान को अपने घर छोड़कर बस  निकल जाओ। वहां पहुंचो  जहां कोई तुमको  जानता नहीं। तुम कहां से हो, कब से हो, किस विचारधारा से बंधे  हो ,और किन बोझों से गिरे हो ,सब  पीछे छोड़ दो।

अकेले यात्रा करने का अपना आनंद है, स्वयं को भूलने की संभावना अधिक है। अपने कीमती सामान , कृत्रिम और सुरक्षित सामाजिक घेरे  से दूर किसी ऐसे स्थान पर पहुंचो जहां कोई सुरक्षा न हो।  सब कुछ सेवा में उपस्थित न हो। कहाँ रहेंगे क्या खाएंगे इस सबकी  कोई पूर्व निर्धारित  योजना न हो।  जहाँ चित्त में बैठे हुए बंधनों का कोई औचित्य न हो। अगर परिवार/ मित्रों या सामाजिक घेरे के साथ जाओगे  तो मंच के  सभी पात्र क्या पूरा का पूरा मंच ही उठ कर दूसरी जगह पहुंच जाएगा और नयी जगह वही पुराना नाटक  ही होगा ।

वैसे तुम भी पुराने ही हो।  वही  मन भी तुम लेकर ही जा रहे हो लेकिन फिर भी इस बार कुछ नया होने की संभावना रहेगी। यह एकांत कुछ पश्न करेगा।   बस पहुंच गए और कोई तैयारी नहीं। अस्तित्व के सामने प्रस्तुत ।  सब कुछ परमात्मा के हाथ में। वैसे भी था ही ,अब अपने आप को थोड़ा खुला छोड़ के भी देख लो । देख लो कि कुछ न भी किया जाए तब क्या होता है। स्वतः। अब इस यात्रा में जो भी अनुभव होंगे नवीन होंगे। अब देख लो कि तुम्हारा कौन सा रूप तुम्हारा है ? देख लो कि अपनी सामाजिक पहचान के आवरण के अभाव में तुम कितने स्वीकार्य हो? जहां गए हो वहां के लोग तुमको कैसा पाते हैं ? क्या तुम अपनी पहचान के बंधन के  बिना सांस ले पा रहे हो ? क्या जो भूखा कुत्ता तुम्हारे पीछे पीछे दरबारी की तरह चल रहा है तुम उसको पुचकार पाने की हिम्मत जुटा पा रहे हो ? यहाँ कोई नहीं देख रहा , यहाँ तुम अपनी करुणा को बहने दे सकते हो।  जब तुम उस सड़क के किनारे बैठकर उन अनजान लोगों के साथ आग का ताप ले रहे हो तब क्या तुम कुछ अधिक जीवित हो ?  उस दिन जब पहाड़ों के बीच से जो नया  सूर्योदय हो रहा है , उसकी किरणें किसको स्पर्श कर रही हैं ? क्या तुम्हारी सामाजिक पहचान को ? क्या यह हवा अलग है या तुम ही आज अलग हो ? क्या इन पत्तों का नृत्य आज अलग है या तुम आज ही देख पा रहे हो ? नहीं ,बस तुम जीवन को आज सजीव देख पा रहे हो।  यह अस्तित्व का नृत्य एकांत की तुमको भेंट है।

वापस जाते समय याद करो कि कितने अनजान लोगों ने निस्वार्थ भाव से तुमको फिर वापस आने को कहा ? कितनी बार तुमको अपनी पहचान और उसी मंच पर भाग जाने की उत्कंठा हुई ? क्या ये  नाटक तुमसे हो पाया , कि वही पुराना रटा रटाया वाला चलेगा ?  यदि प्रश्न भी उठे तो यात्रा सफल है। प्रश्न ही महत्वपूर्ण है। जिसने कहा उसको उत्तर मिल गए वह स्वयं को भ्रमित कर रहा है।

 एकांत की यात्रा ही महत्वपूर्ण है। कभी-कभी ही सही । जब तुम वापस जाओगे तो देखोगे कि नाटक वैसे का वैसा ही चल रहा है। तुम वापस न भी आते तो चलता ही रहता।  कभी रुका ही नहीं।  बस तुमको लगा कि तुमने शुरू किया। यहां भीड़ की कमी नहीं है। वही पागल दौड़ जारी है। अब फिर से दौड़ लो। लेकिन अलग जाना महत्वपूर्ण था। अपनी विक्षिप्तता का बोध भी उस परिचित परिधि के बाहर जाकर ही होगा । जहाँ सब भ्रमित हैं वहाँ तुम सबके जैसे ही रहे तभी सामान्य समझे जाओगे , लेकिन हैं तो सब भ्रमित ही। यह बोध ही पर्याप्त है।  यही यात्रा का उद्देश्य भी था। कोई और अवस्था और संभावना भी हो सकती है ,यह समझना ही ध्येय था।

अलग जाकर , दूसरे तल पर जाकर ही नए की संभावना जगती है। जब संभावना जाग जाये , तब भीड़ से भागने की भी आवश्यकता नहीं।  तब स्वयं का मन भी शत्रु नहीं। तब भीड़ में भी एकांत मिलेगा। एकांत में ही आनंद मिलेगा। कभी कभी अकेले निकलना चाहिए। और एक दिन यह अनुभूति होगी कि अकेले ही निकले हो  ।

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