वही पुराना व्यक्ति जब नए में प्रवेश करेगा तब कुछ नया कैसे हो पाएगा ? जब पुराने और नए की परिभाषा भी इसी व्यक्ति ने लिखी हो तब तो नया कुछ हो ही नहीं सकता।
कोई भी वर्ष तब तक नया लगता है जब तक दूसरा याद दिलाता रहे। बाहर से चिल्लाता रहे कि समय बदल गया है। जो नहीं हुआ अब होने का समय आ गया है। नया सामान खरीदने का , नए तरीके से उपभोग करने का , जो चाहो उसे पा लेने का , एक अच्छे जीवन की तरफ एक और पग बढ़ा देने का। लेकिन यह नयापन इतनी जल्दी बासी क्यों हो जाता है ? नववर्ष के दस दिन बीतते ही सब पुराना क्यों लगने लगता है ? क्योंकि समय परिवर्तित हुआ है यह किसी ने बाहर से बताया है। प्रसन्न होने का क्षण है यह भी कोई बाहर से समझा रहा है। वह बाहर वाला तो यह भी कह रहा है कि प्रसन्न होने पर क्या क्या किया जा सकता है वो भी तुम्हें वह ही बताएगा। उसको यह भी पता है कि तुम बस कुछ समय के लिए ही नए का स्वाद लेना चाहते हो। उसे पता है कि नया क्या है यह तुमको पता ही नहीं है। इसीलिए थोड़े शोरगुल के बाद वह भी शांत हो जाएगा और तुमको किसी और नए की प्रतीक्षा में लगा देगा। उसको पता है कि इस नए के अतिरिक्त कुछ और भी नया हो सकता है , ऐसा तुमको बोध ही नहीं है। उसे भी नहीं है।
मनुष्य कृत्रिम समय पर चलता है। आपस में ही निर्णय करके एक दूसरे को बधाई दे देता है और प्रसन्न होने के अवसर तय कर लेता है। उसकी पूरी दृष्टि ही बाहर है। पशु पक्षियों के साथ ऐसा नहीं है। उनके भीतर अस्तित्व ने कुछ बिठा दिया है , जिससे वो हर क्षण को नयी दृष्टि से देखते हैं। उनके लिए हर क्षण ही नया है , दिन और वर्ष का तो कोई अस्तित्व ही नहीं। किसी पक्षी कि दिनचर्या से जीवन में जो भी सीखने योग्य है सीखा जा सकता है। उनकी चहचहाहट में जो उल्लास होता है वही मनुष्यों को नयेपन का अनुभव करा देता है। उनका संन्यास नैसर्गिक है। आवश्यकता से अधिक संग्रह न करना , कल की चिंता न करना , एक एक क्षण का उपयोग करना और जीवन से भरपूर रहना। मनुष्य तो जब नये का उत्सव मनाता भी है तो वह उस क्षण का , उस अस्तित्व का , उस जीवन का उत्सव नहीं होता , अपितु वह एक उम्मीद का उत्सव होता है। एक आशा है कि आने वाला समय कुछ ऐसा लाएगा जो आज तक नहीं मिला , इसलिए आज प्रसन्न हो लो। यह उत्सव भी अकारण नहीं है , सशर्त है। नया वर्ष आ रहा है तो कुछ देके जाए , तभी उसका आना सार्थक है। इसी उम्मीद का आज उत्सव मना लें। और क्योंकि भविष्य कभी आता नहीं , इसलिए वो परिपूर्ण आनंद का क्षण भी आता नहीं। पशु पक्षी , संपूर्ण अस्तित्व यही दिखाता रहता है कि नया है तो अभी है। जो आएगा वो तो विचारों ने कब का पुराना कर दिया। मनुष्य तो वही है।
समय का चक्र तो उसी मन पर है जो भूत और भविष्य ,महत्वाकांक्षाओं , विचारधाराओं , इच्छाओं , विवशताओं और अधूरेपन से बना है। नया तभी होगा जब मनुष्य का पुनर्जागरण होगा। जागरण तभी होगा जब यह सब बोझ हटेगा। तब भीतर उस सरलता और उल्लास का उदय होगा जो प्रतिदिन सूर्य के आने पर संपूर्ण प्रकृति में होता है।