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आगे बढ़ो

किसी प्रियजन  के संसार छोड़ कर चले जाने के कुछ समय बाद ही बाहर से एक कोलाहल उठता है , “आगे बढ़ो ! ” अगर बाहर से नहीं आया तो अंदर से तो आ ही जाता है , “आगे बढ़ो , जो होना था हो गया। “


आने जाने का क्रम तो चलता रहता है। बूँद सागर को छोड़ कर आगे बढ़ जाती है ,संतान माता पिता को जीवन में आगे बढ़ने का औचित्य समझाकर और आगे बढ़ जाते हैं , या व्यक्ति विवश होकर अपने सत्य से ही आगे बढ़ जाता है।
जब यह बोध होता है कि जाने वाला अब कभी दर्शन नहीं देगा , तब असहनीय पीड़ा होती है। उस समय किसी तरह के ज्ञान का कोई अर्थ नहीं प्रतीत होता है। ह्रदय के केंद्र में पीड़ा रुपी शून्यता का एक केंद्र सा बन जाता है।  यह खालीपन दीर्घकाल तक रह सकता है। जो जितना जल्दी आगे बढ़ जाता है , वह इस घाव को उतनी जल्दी भर लेता है।


क्या आगे बढ़ने से पहले यह देख नहीं लेना चाहिए , कि जो आगे बढ़ गए , वह कहाँ तक पहुंचे ? कि अभी रास्ते में ही हैं ? उन असंख्य लोगों में कोई एक भी पहुँच पाया हो , तो स्वयं भी आगे बढ़ा जाए।
जब दृष्टि का सही उपयोग  किया तब देखा कि जो मार्ग सीधा लग रहा था वो वृत्ताकार था। तब ज्ञात हुआ कि आगे बढ़ना और सत्य से भाग जाना एक ही बात है। यदि व्यक्ति आगे बढ़े और उसी पुरानी बिंदु पर न पहुंचे तब बात बने। कहानी कुछ आगे बढ़े।  लेकिन कुछ अंतराल के पश्चात जब वही स्थिति फिर उत्पन्न हो जाए जिससे आगे बढ़ गए थे , तब तो कहीं भयंकर भूल हुई है। घूमते घूमते बार बार यहीं पहुँच जाना है।  मार्ग बनाने वाला भी यह देखकर आनंदित हो रहा है।


जीवन की विपरीत से विपरीत परिस्थितयों से निकल गए , जो गए उनका शोक मना लिया। फिर प्रसन्न हुए , गीत गए , उत्सव मनाये , सकारात्मक उपदेश दिए , उस क्षण के आनंद में लीन हो गए। लेकिन फिर तूफ़ान आया और उसी बिंदु पर लाकर पटक गया। पासे गिर गए। खेल फिर शुरू हुआ। क्या लाभ हुआ आगे बढ़ने का ?

क्या कोई खेल से पलायन कर सकता है ? इस वृत्त में घूमना बंद कर सकता है ? जब तक प्राण हैं यह खेल तो खेलना होगा। फिर किसी के जाने का कष्ट कैसे सहन किया जाए , आगे कैसे बढ़ा जाए ? खेल में प्रासंगिक कैसे रहा जाए ? क्या आगे बढ़ने का वास्तविक अर्थ समझा जाए ? सत्य को पकड़ा जाए और बाकी सब छोड़ दिया जाए ?


जब भी कोई संसार से गया , तब मैं भी गया। कहीं कुछ घटा , तब मेरे भीतर भी कुछ घटा। पहले नहीं दिखा , तो अब दिखा। जब कहीं कोई मृत्यु हुई , तब सत्य की अभिव्यक्ति हुई।
सत्य ने कहाँ कभी भेदभाव किया ? बुद्ध ने मृत्यु देखी , तो उन्हें भी  मृत्युतुल्य कष्ट की अनुभूति हुई। बस वही देखकर वह आगे बढ़ने का अर्थ समझ गए और आगे बढ़ गए।

जीवन जैसा है उसको वैसा ही देखने के लिए ग्रंथों के अनुवाद पढ़ने की आवश्यकता नहीं है।  न ही तर्क का आश्रय लेकर अपनी विचारधारा श्रेठ सिद्ध करने का कोई औचित्य है। जो जैसा है , वही सनातन है। सत्य है। जब दिख जाए। मूढ़ भी इसी वृत्त में है , तथाकथित ज्ञानी भी। जीवन को समग्रता से देख लेना ही सही अर्थ में “देखना है ” , यहीं से शायद आगे बढ़ने का मार्ग मिले।
राम नाम बस जाने वाले के लिए सत्य नहीं था , वह तुम्हारे लिए भी है। तुम्हारे लिए ही है। बस राम ही है। वही सत्य है। जो रह गया उसके लिए अनुस्मारक है। देख लो , अभी देख लो , जी भर के खेल लो , और आगे बढ़ लो।  

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POETRY

Freedom

When the last breath leaves and merges with its source,

When the mind recedes to nothingness and its home of old;

When I am left alone with this song of silence,

What is left to be seen when the seer is the scene?

I am floating in this vacuum of darkness,

For what all was this earthly madness?

Who takes care of the house and the keys?

Those leftover accounts and the assets that freeze;

Those tales of victory and the battles fought,

Those cries and wants and laughter aloud;

What all was that as I wonder now?

When all that I did was travel as now;

Let me cut these invisible chains,

For who wants to return to this circus again;

Let me rest here and now,

I have my freedom and will never be bound…